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व्यक्ति को पता लगे बिना नहीं रहता ।
वक्ता के भावों का श्रोताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है । वक्ता यदि स्वयं माला नहीं फेरता हो और कहे कि 'आप माला फेरें' तो उसका उपदेश शायद ही श्रोताओं के गले उतरेगा ।
ज्यादा गुड़ खाने वाले लड़के को उस संन्यासी ने उसी समय प्रतिज्ञा नहीं दी, परन्तु पन्द्रह दिनों के बाद उसे प्रतिज्ञा दी । संन्यासी ने स्पष्टीकरण दिया कि 'मैं स्वयं गुड़ खाता होउं तो गुड़ बंध करने की प्रतिज्ञा दूसरे को कैसे दे सकता हूं ? मुझे पन्द्रह दिनों से गुड़ बन्ध है । मैं अब ही वह प्रतिज्ञा देने का अधिकारी हूं । यह दृष्टान्त आपने अनेक बार सुना होगा ।
शिष्यों को जो देना हो वह गुरु स्वयं अपने भीतर उतारे । गुरु शिष्यों को तैयार करने के लिए अनेकबार ऐसे प्रयोग करते थे । प्रेमसूरिजी ने स्वयं फलों का त्याग किया था, क्योंकि वे शिष्यों को त्यागी बनाना चाहते थे ।
फल ज्यादातर दोषित ही होते हैं ।
समस्त जीवों को अभयदान देने की प्रतिज्ञा लेने के बाद छः काय-जीवों की कहीं भी विराधना न हो, उसकी हमें सावधानी रखनी चाहिये ।
प्रश्न : लोग हमारे हृदय के भाव किस प्रकार जान सकते
हैं ?
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उत्तर : विशुद्ध भाव प्रायः बाह्य चारित्र की शुद्धि से जाने जा सकते हैं । गुरु में बाह्य चरण हों, शायद आन्तर चरण नहीं हो तो भी शिष्य को थोड़ा भी दोष नहीं हैं । मेरे गुरु ऐसे महान् ! ऐसे उच्च ! ऐसे भावों से उसकी तो भावोल्लास में वृद्धि ही होगी । अंगारमर्दक के शिष्य स्वर्ग में गये हैं । उसके पास भाव चारित्र नहीं था । वह अभव्य जीव था, परन्तु शिष्यगण गुरु का विनय करने से लाभान्वित हो गये । उनका बाह्य चारित्र उत्कृष्ट था । अतः अयोग्य गुरु के प्रति भी योग्य गुरु के परिणाम हो जायें तो कोई दोष नहीं है । शिष्यों का कल्याण तो निश्चित ही है । परन्तु यहां मोह नहीं होना चाहिये, अन्यथा कुगुरु में भी सुगुरु की बुद्धि आ जाय जो कल्याणकारी नहीं है ।
कहे कलापूर्णसूरि १ *
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