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अध्यात्म गीता
. ज्ञान-सम्पत्ति देते रहें तो ऋण-मुक्ति होती है । अपने पास रखें तो ब्याज चढता है ।
. अध्यात्म-गीता इसलिए ली है कि उसके प्रणेता के जीवन में अध्यात्म था । उनके उद्गार ही उनकी अनुभूति व्यक्त करते हैं, पू. देवचन्द्रजी, यशोविजयजी, आनंदघनजी, वीरविजयजी, मानविजयजी आदि अनुभवी पुरुष थे, जिसकी साक्षी उनकी रचनाएं हैं ।
. जीवन-निर्वाह की हमें कोई चिन्ता नहीं है तो हम क्यों यह समय आत्म-साधना में न लगा दें ?
हमें आवास, भोजन, पानी आदि सब तैयार मिलता है, कोई चिन्ता नहीं है । यदि यहां रहकर भी हमारी आत्म-दृष्टि नहीं खुली तब तो हद ही हो गई ।।
. नैगम एवं संग्रह नय ने तो हमें सिद्धत्व का प्रमाणपत्र दे दिया, परन्तु जब शब्द नय प्रमाणपत्र दे तब सही मानें ।
शब्द नय सम्यक्त्व, देश-विरति, सर्व विरति में लागू होता
नैगमनय, संग्रहनय सब जीवों के साथ मैत्री की शिक्षा देते हैं । सब जीव सिद्धस्वरूपी है। किसी के भी साथ शत्रुता क्यों ? भीतर विद्यमान सिद्धत्व को प्रकट करने की रुचि भी ये ही उत्पन्न करते हैं ।
नैगम एवं संग्रह दोनों अभेद बतानेवाले हैं ।
संग्रह नय मात्र सामान्यग्राही है, जबकि नैगम सामान्य विशेष - उभयग्राही है । व्यवहार नय आपकी अशुद्धता का ध्यान दिलाता
___'मेरे पिताजी ने एक व्यक्ति को एक करोड़ रूपये दिये थे । आप अभी मुझे दस लाख रूपये दीजिये । उस व्यक्ति के रूपये आयेंगे तब मैं आपको लौटा दूंगा ।' एक योगी ने कहा है - 'घर में खजाना है', निकलेगा तब दे दूंगा । अभी मुझे ग्यारह लाख रूपये दो । ऐसा व्यवहार में चलेगा ?
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****************************** कहे
*** कहे कलापूर्णसूरि - १