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कैन्सर का रोगी भी ये गाथा १०८ बार जपने से सुख-शान्ति का अनुभव करता है ।
गाथा ४४ :
सब बंधा हुआ है, परन्तु मेरा सिर खुला है। जब तक मेरा सिर खुला है, तब तक मुक्ति का मार्ग खुला है ।।
हमारे जीवन में भगवान ही हैं कि भगवान भी हैं ?
हमारे जीवन में भगवान ही हैं, ऐसा होगा तब दोष दरिद्रता इत्यादि जायेंगे । भक्त भगवान से अलग होता है तब ही दोष सम्भव है । अन्यथा जो दोष भगवान में न हो वे दोष भक्त में कहां से आयेंगे ?
गाथा ४३, ४४; पूज्यश्री :
प्रथम गुणों का, फिर नाम के प्रभाव का वर्णन आया । अन्त में उपद्रव नष्ट करने के प्रभाव का वर्णन आया । रागरूपी सिंह, द्वेषरूपी हाथी, क्रोधरूपी दावानल, कामरूपी संग्राम, लोभरूपी समुद्र, मोहरूपी जलोदर, कर्म-बन्धनरूप बेड़ी - ये सब प्रभु के नाम के प्रभाव से टलते हैं । वे स्वयं ही भगवान को देखकर भयभीत होकर भाग जाते हैं, जैसे सिंह को देखकर हाथी भाग जाता है ।
मानतुंगसूरिजी कहते है : प्रभु की यह स्तुति जो कण्ठ में धारण करेगा वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त करेगा ।
पुस्तक मल्युं छे. सुंदर प्रेरणादायी छे. अनेकने उपयोगी बनशे.
- पद्मसागरसूरि
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