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________________ २. शूद्र जनों से अनभिभवनीया । ३. वचन की अप्रतिहतता । ४. रोगों आदि की शान्ति । ५. समर्पण । ६. अर्थोपार्जन की क्षमता । ७. सौभाग्य का अखण्डितत्व । • सिंहासन - ध्यान से साधक स्थान-भ्रष्ट नहीं होता । • चामर-ध्यान से चमरबंधी की सेवा नहीं करनी पड़ती । छत्र-ध्यान से जीवन में भक्त का छत्र (आबरू) नष्ट नहीं होता । गाथा ३२, ३३ : भगवान चलते हैं वहां पृथ्वी स्वर्णमय बनती है । भगवान चलते है वहां उपद्रव शान्त हो जाते हैं । मेरे कदम भी आपकी आज्ञारूप तीर्थधरा पर पड़ें तो काम बन जाये । गाथा ३४ : सिंह, हाथी आदि प्रतीकों से क्रोध, अहंकार आदि दोषों के विघ्न टल जाते हैं, यह समझें । गाथा ३५, ३६, ३७ : दावानल आदि रूपी कषाय उत्पन्न होने पर प्रभु ! आपका नाम जल का कार्य करता है । गाथा ३८, ३९, ४० : भगवान की भक्ति छोड़कर अन्यत्र कहीं से जीवन के विघ्न दूर नहीं होते, ऐसी अविहड़, अटूट श्रद्धा होनी चाहिये । गाथा ४१, ४२ : उद्भूत... गाथा से पू. पंन्यासजी भद्रंकरविजयजी याद आते हैं । वे लुणावा में कहते - 'व्याधि अधिक है । १०८ बार उद्भूत... गाथा बोलें ।' बोलने से शान्ति मिलती ।। प्रभु की चरण-रज का अंश भी पड़े तो रोग मिटेगा ही । इससे ज्ञात होता है कि शरीर बीमार नहीं पड़ता, मन बीमार पड़ता ५१६ ****************************** ***** कहे कलापूर्णसूरि - 3 का
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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