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पूज्यश्री : श्राद्धविधि, धर्म संग्रह भाग १, योगशास्त्र - चार प्रकाश, चार प्रकरण, तीन भाष्य, छ: कर्मग्रन्थ, कम्पपयडी, पंचसंग्रह आदि बहुत है । जिसका निषेध नहीं है, वह तो पढो । फिर यह समस्त आगम सुनने का तो अधिकार हैं ही । तुंगीया नगरी के श्रावक लद्धिअट्ठा, गहिअट्ठा कहे गये हैं । उन्हें ग्यारह अंगों के पदार्थ कण्ठस्थ होते थे । वहां जानेवाले साधुओं को भी विचार करना पड़ता था कि क्या उत्तर देंगे ?
शशिकान्तभाई ! आपके लिए समाधि शतक ग्रन्थ श्रेष्ठ है । अध्यात्म गीता :
अध्यात्म का ज्ञान नहीं, अध्यात्म पूर्ण जीवन होना चाहिये तो ही आमूलचूल परिवर्तन होगा । बार-बार उसका अभ्यास करते रहें । गहन संस्कार पड़ेंगे ।
जगत् की समस्त क्रियाओं में चैत्यवन्दन, देववन्दन, श्रावक-साधुओं के आचार सब से श्रेष्ठ अध्यात्म हैं ।।
जो आपको अपने स्वरूप की ओर ले जाये वह अध्यात्म है । विरति के बिना सच्चा अध्यात्म नहीं आ सकता । रुचि हो तो अविरति में बीज मात्र के रूप में अध्यात्म हो सकता है और वह अध्यात्म मैत्री आदि भावों से युक्त होना चाहिये ।
यह 'अध्यात्म गीता' इसमें सहायक होगी । . जितना उपयोग स्वरूप में होगा, उतना कर्मबंध रुकेगा । 'समभिरुढ नय निरावरणी, ज्ञानादिक गुण मुख्य,
क्षायिक अनन्त चतुष्टयी भोगमुग्ध अलक्ष्य;
एवंभूते निर्मल सकल स्वधर्म प्रकाश, पूरण पर्याये प्रगटे, पूरण शक्ति विलास. ॥ १० ॥'
संग्रह नय स्थूल है । उसके बाद उत्तरोत्तर नय सूक्ष्म होते जाते हैं । एवंभूत नय सब से सूक्ष्म है । व्याख्या क्रमशः सूक्ष्म होती जाती है ।
__ संग्रह नय या नैगम नय हमें कह दे कि 'तू सिद्धस्वरूपी है तो नहीं चलेगा । एवंभूत कहे तब सही मानना । फिर भी इतना चोक्कस है कि संग्रह एवं नैगम नय हमें विश्वास देते है - तू सिद्धस्वरूपी है। तू बकरी नहीं है, सिंह है। तू पत्थर भले ही प्रतीत
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कहे