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हो, परन्तु तुझमें प्रतिमा छिपी हुई है । मैं वह देख रहा हूं।
शिल्पी ज्यों ज्यों टांकी मारता जाता है, त्यों त्यों पत्थर में से प्रतिमा प्रकट होती जाती है । शिल्पी कहां तक टांकी मारेगा ? जब तक पूर्ण प्रतिमा नहीं बन जाती । गुरु की शिक्षा कहां तक ? जब तक हमारे भीतर पूर्णता प्रकट नहीं होती ।
समभिरूढ नय तो केवलज्ञानी को भी सिद्ध मानने के लिए तैयार नहीं है। अभी तक अघाती कर्म, ८५ कर्म-प्रकृति सत्ता में पड़ी है। वह तो सिद्धशिला में जीव पहुंच जाय तब ही सिद्ध मानता है।
तो काम थई जाय सोनामांथी बनेला अलंकार सोनुं मनाय छे. तेम शक्तिरूपे अप्रगट एवं परमात्म-स्वरूप परमात्मा ज छे. अर्थात् परमात्मामां जे छे ते ज आत्मामां छे. तेनी शक्तिओ अनंत छे. चैतन्य, लक्षण ज ज्ञान स्वरूप छे. आपणे आपणने ज्ञान स्वरूप मानता नथी. देहादि स्वरूप मानीने अनादिकाळथी भूल खाता आव्या छीए. पण आ जन्ममां ए मान्यताने मूकी साचा पुरुषार्थमां लागी जईए तो काम थई जाय.
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ५०१)