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जानते हैं । ज्ञान से वे सर्वत्र व्यापक हैं । यदि हम यह दृष्टि अपने समक्ष रखेंगे तो सर्वत्र व्याप्त प्रभु प्रतिपल सदा दृष्टिगोचर होंगे ।
✿ मन की चार अवस्थाएं हैं - विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट और सुलीन । सुलीन तक पहुंचने के लिए प्रथम तीन अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है ।
किसी भी धर्म का व्यक्ति किसी भी नाम से प्रभु को पुकारे तो ये ही आयेंगे । सर्व गुण सम्पन्न, सर्व शक्तिसम्पन्न, समस्त दोषों से मुक्त ऐसा दूसरा कौन है ? जिस प्रकार समस्त नदियां सागर में मिलती हैं, उस प्रकार समस्त नमस्कार अरिहंत प्रभु को प्राप्त होते हैं ।
✿ अपराधी को क्षमा प्रदान नहीं करना क्रोध है । कर्म के अतिरिक्त कोई अपराधी नहीं है । उसे छोड़कर अन्य को अपराधी मानना मिथ्यात्व है ।
भगवान ने किसी भी शत्रु को अपराधी न मानकर उपकारी माना है ।
✿ आज मैं प्रभु-भक्ति को नहीं छोड़ता । किस लिए ? मुझे उसमें रस आता है । आनन्दप्रद योग को भला मैं केसे छोड़ सकता हूं ? जिस साधना में निर्मल आनन्द की वृद्धि होती जाये, वही सच्ची साधना है । साधना की यही कसौटी है, यही परीक्षा है कि दिन-प्रतिदिन आनन्द में अभिवृद्धि होती है कि नहीं ? यही आनन्द आगे जाकर समाधि रूप बनेगा । भक्ति तो समाधि का बीज है । आप परमात्मा की मनमोहक प्रतिमा के समक्ष हृदयपूर्वक चैत्यवन्दन आदि करें, भक्तियोग का प्रारम्भ होगा ।
( कहे कलापूर्णसूरि- १ ***:
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