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वाकी तीर्थ प्रतिष्ठा, गुज.वै.व.६,२०४५
६-७-१९९९, मंगलवार
आषा. व. ८
* अनादिकाल से जिस परमात्मा का वियोग है, उस प्रभु का संयोग कराये वह योग है । जिस स्वामी के प्रति प्रेम हो उसकी बात पर, उसकी आज्ञा पर भी प्रेम होगा ही, यही वचनयोग है । प्रभु का प्रेम प्रीतियोग, उनके प्रति अनन्य निष्ठा भक्तियोग, आज्ञा-पालन वचन-योग और भगवान के साथ तन्मयता असंगयोग है । प्रीतियोग प्रारम्भ है ओर असंगयोग पराकाष्ठा है । इसी लिए मैं बार-बार प्रभु के साथ प्रेम करने की बात कहता हूं - 'प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिणंदमुं' मेरा यह स्तवन यही बात कहता है । प्रीतियोग में प्रविष्ट होना ही दुष्कर है । एकबार उसमें प्रवेश होने के बाद आगे के योग अत्यन्त कठिन नहीं हैं। सांसारिक प्रेम को प्रभु के प्रेम में मोड़ना यही सर्वाधिक दुष्कर कार्य है।
* जिन जिन के पास मैंने पाठ लिये हैं उन सबको मैं नित्य याद करता हूं। 'गुरु अनिह्नव' यह एक ज्ञानाचार है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रत्येक स्थान पर गुरु नय-विजयजी का स्मरण किया है । (यशोविजयजी प्रसिद्ध थे, नयविजयजी
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