________________
उस ग्रन्थ के लेखक, रचयिता, प्रणेता का आदरपूर्वक जाप करें । शास्त्रकार के प्रति आदर होगा तो ही उस शास्त्र के रहस्य समझ में आयेंगे । जिनके प्रति हमारे आदर में वृद्धि हुई, उनके गुण हमारे भीतर आ गये, समझिये ।
* पूर्व-काल में आजीवन योगोद्वहन चलते । ज्ञान या स्वाध्याय कभी बंद होते ही नहीं थे। उनके लिए क्या ज्ञान-ध्यान कठिन होगा? क्या उनके लिए मोक्ष दूर होगा? हमें तो ज्ञान-ध्यान इतने आत्मसात् हैं, मोक्ष इतना निकट है कि मानो कोई आवश्यकता ही नहीं हैं। न तो ज्ञान की आवश्यकता है, न ध्यान की और न किसी अन्य योग की आवश्यकता है। हम शूरवीर हैं न ?
- नवकार का जाप अर्थात् अक्षर देह स्वरूप प्रभु का जाप । अक्षरमय देवता का जाप ।
आपके नाम, आपके चित्र, आपके भूत-भावी पर्याय के द्वारा आप विश्व में कितने व्याप्त है ? भगवान भी नाम आदि के रूप से समग्र विश्व में फैले हुए हैं । हमारे नाम आदि कल्याणकारी नहीं है, भगवान के कल्याणकारी हैं ।
__ भक्त को तो भगवान का नाम लेते ही, स्मरण करते ही, हृदय में भगवान दृष्टिगोचर होते हैं । उपाध्याय मानविजयजी कहते हैं - 'नाम ग्रहंता आवी मिले, मन भीतर भगवान ।' नाम आदि चारों प्रकार से भगवान किस प्रकार विद्यमान हैं ? ज्ञानविमलसूरिं चैत्यवंदन में कहते हैं :
'नामे तू जगमा रह्यो, स्थापना पण तिमही,
द्रव्ये भवमांही वसे, पण न कले किमहि ।' 'भावपणे सवि एक जिन, त्रिभुवन में त्रिकाले ।' । इसके अर्थ को सोचना, चिन्तन करना, आपका हृदय नाच उठेगा ।
• आत्मा यदि विभु (व्यापक) हो तो कर्मबंध कैसा ? यदि कर्मबंध न हो तो मोक्ष किसका ? यदि मोक्ष नही हो तो यह सिरपच्ची कैसी ? इस प्रकार का प्रश्न एक गणधर के मन में उठा था । भगवान ने कहा - आत्मा विभु अवश्य है, परन्तु केवलज्ञान के रूप में । केवलज्ञान से सम्पूर्ण लोक-अलोक को
२
******************************
कह