________________
चांकी तीर्थ प्रतिष्ठा, गुज. 4.व.६,२
वांकी तीर्थ में १०९ पू. साधु-साध्वीजी
भगवन्तों एवं जिज्ञासु गृहस्थों के समक्ष दी गई वाचना के अंश
५-७-१९९९, सोमवार
आषा. व. ६-७
* रत्नत्रयी की आराधना में जितनी मन्दता होगी, उतना ही मोक्ष दूर ।
जितनी तीव्रता होगी, मोक्ष उतना समीप ।
* आज तक हमने पर-संप्रेक्षण बहुत किया, अनेक कर्म बांधे, अब हमें आत्म-संप्रेक्षण करना है । उसके बिना स्वदोषों पर दृष्टि नहीं जायेगी, यदि दोष दृष्टिगोचर नहीं होंगे तो वे दूर नहीं होंगे । पांव में लगा हुआ कांटा यदि दिखाई ही नहीं देगा तो निकलेगा कैसे ? आत्म-सम्प्रेक्षण से शनैः शनैः देह एवं आत्मा की भिन्नता भी दृष्टिगोचर होने लगती है ।
जिस प्रकार देव-गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं रखना मिथ्यात्व है, उस प्रकार देह में आत्म-भाव रखना भी लोकोत्तर मिथ्यात्व है। देह के प्रति आत्म-बुद्धि हटते ही हमें अक्षय खजाना मिल जाता है।
* पं. मुक्तिविजयजी कहा करते थे - जो ग्रन्थ पढना है कहे कलापूर्णसूरि - १ **********
******************************
१