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प्रवचन में मुनि-गण, वांकी (कच्छ), वि.सं. २०५५ ।
४-११-१९९९, गुरुवार
का. व. ११
. भगवान ने श्रावकों एवं साधुओं के दो धर्म इसलिए बताये हैं कि सभी यथाशक्ति धर्माराधना करें । कोई शक्ति से अधिक करके विराधना करके पाप का भागीदार न बने ।
. भगवान द्वारा प्ररूपित अनुष्ठान करते समय भगवान याद आने चाहिये । गुरु द्वारा कथित कार्य करते समय गुरु याद आते है उस प्रकार भगवान याद आने चाहिये । हम मानते हैं कि 'मुझ में क्षमता नहीं है, परन्तु गुरु के प्रभाव से मुझे सफलता मिलती हैं ।' उस प्रकार भगवान के अनुष्ठानों में भी विचार करना चाहिये ।
. भगवान जो अनुष्ठान बताते हैं वे मुक्ति-साधक ही होते हैं । जैन दर्शन में ऐसा एक भी अनुष्ठान देखने को नहीं मिलता जो संसार-वर्धक हो । हां, हेय के रूप में अवश्य देखने को मिलेगा । त्याज्य के रूप में न बताये तो त्याग भी कैसे होगा ?
. पाप का अभ्यास अनादिकाल का है । पुन्य, संवर, निर्जरा का अभ्यास नया है ।
इसीलिए इतना अधिक सुनने पर भी खास मोके पर यह सब भूल जाते हैं, आवेश में कुछ भी याद नहीं रहता । अनादि
कहे
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