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जिन वचनों के विपरीत चलकर जो शिष्यों के लोभ से अयोग्य को दीक्षित करे वह गुरु चारित्रवान एवं तपस्वी हो तो भी वह स्व-चारित्र खोता है। अन्य व्यक्ति पर उपकार करने तो गये, पर वह तो हो नहीं सका, स्व-उपकार भी गया ।
चमार, भील, ढेढ (मेघवाल) आदि अकुलीन दीक्षा के लिए निषिद्ध हैं फिर भी लोभ-वश दीक्षा दी जाये तो गुरु का भी चारित्र नष्ट होता है । ऐसे व्यक्ति को बड़ी दीक्षा दी जाय तो आज्ञाभंग, मिथ्यात्व, अनवस्था एवं विराधना आदि सब दोष लगते हैं ।
बड़ी दीक्षा के बाद पता लगे तो मांडली में प्रवेश नहीं दिया जाय । संवास नही करना । यदि संवास हो जाय तो पढाना नहीं ।
जिस प्रकार असाध्य रोग मालूम हो जाने के बाद वैद्य उपचार नहीं करता । ऐसे रोगी की उपेक्षा करके उसका बहिष्कार करना ही उपचार है ।
अध्यात्म गीता : ऋजु सुइए विकल्प, परिणामी जीव स्वभाव, वर्तमान परिणतिमय व्यक्ते ग्राहक भाव; शब्द नये निज सत्ता, जोतो इहतो धर्म, शुद्ध अरूपी चेतन, अणग्रहतो नव कर्म ॥ ८ ॥ ऋजुसूत्र विकल्प के रूप में वर्तमान परिणति को ग्रहण करता हैं ।
साधु-वेष हो परन्तु वर्तमान में साधु-भाव न हो तो ऋजुसूत्र उसे साधु नहीं मानता ।
'इणि परे शुद्ध सिद्धात्मरूपी, मुक्त परशक्ति व्यक्त अरूपी; समकिति देशव्रती,सर्व विरति,धरेसाध्यरूपेसदा तत्त्व प्रीति॥९॥' वीर्यशक्ति सत्ता में है, परन्तु व्यक्तरूप में वह दृष्टिगोचर नहीं होती ।
सम्यग्दृष्टि, देश एवं सर्वविरतिधर, साध्यरूप तत्त्वों के प्रति प्रीति रखते हैं।
समकिती को आत्मसत्ता का ध्यान होता है, क्योंकि स्वसत्ता का ध्यान आने पर ही समकित आता है ।
एकबार मालूम हो जाये कि घर में खजाना गडा हुआ है तो स्वाभाविक है कि मनुष्यों को उससे बाहर निकालने की इच्छा हो ।
__ आत्मा के भीतर अनन्त ऐश्वर्य विद्यमान है। इसका पता लगते ही उसे प्राप्त करने की उत्कण्ठा होती है। यह उत्कण्ठा ही सम्यकत्व है ।
कहे
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