________________
अध्ययन करने के लिए आनेवाले को अध्यापन करानेवाला दुत्कारे नहीं; वात्सल्यपूर्वक अध्ययन कराये ।
ऐसा करने से अखण्ड परम्परा चलती है ।
मैं यदि अपने शिष्यों को पढाउंगा तो वे भी अपने शिष्योंप्रशिष्यों को पढायेगें, इस प्रकार परम्परा चलेगी ।
सिद्धि के बाद यह बताने के लिए ही विनियोग बताया है।
प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय एवं सिद्धि तक पहुंचने के बाद भी यदि विनियोग नहीं आया तो ज्ञान सानुबन्ध नहीं बनेगा, भवान्तर में साथ नहीं चलेगा ।
यदि कोई पढनेवाला (अध्ययन करनेवाला) नहीं है तो सामने से बुलाकर पढाओ ।
पुष्प खिलने के बाद महक (सुगन्ध) फैलाते है, उसी तरह पढने के बाद आप ज्ञान की सुगन्ध फैलायें । यह विनियोग से ही सम्भव है ।
तीर्थ की परम्परा इस प्रकार ही चलेगी । जैन-शासन की चलती अखण्ड परम्परा में हम थोड़ा भी निमित्त बनें, ऐसा अहो भाग्य कहां से ?
बीज कायम रहना चाहिये, बीज होगा तो वृक्ष स्वतः ही मिल जायेगा, श्रुतज्ञान बीज है ।
छोटी उम्र के अनेक साधु-साध्वीजी यहां है । यह सुनकर पढने-पढाने में आगे बढोगे कि सन्तोषी बनकर बैठे रहोगे ? यहां सन्तोषी बनना अपराध है ।
परन्तु ज्ञान अभिमान उत्पन्न न करे यह भी देखना है। इसके लिए भक्ति साथ में रखें ।
'जेम जेम अरिहा सेविये रे, तेम तेम प्रकटे ज्ञान.'
धन कमाने के बाद उसकी सुरक्षा करना कितना कठिन है, यह किसी अनुभवी को पूछोगे तो पता लगेगा । क्यों दिनेशभाई ! सच है न ? थोड़ी सी गफलत में रहे कि धन गायब !
ज्ञान में भी ऐसा ही है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद उसे टिकाना कठिन है। ज्ञान को टिकाना हो तो दूसरों को पढाओ। दूसरों को पढाओगे तो पुनः आप ही पढोगे । आपका ज्ञान सुरक्षित होगा । मैं वाचना आदि
४९० ******************************
कहे