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में जो बातें कहता हूं वे टिकती है, अन्य चली जाती है।
यहां हम ११० साधु-साध्वी है । पन्द्रह-बीस वृद्धों को एक ओर रखें तो अन्य तो पढ़ सकते हैं, पढा सकते हैं न ?
इस प्रकार जो पढते-पढाते है, उन्हें क्या मिलता है, जानते हो? वे तीर्थंकर नाम-कर्म भी बांध सकते हैं, ऐसा हरिभद्रसूरिजी कहते है।
- गुरु की भक्ति नहीं करोगे तो भगवान नहीं मिलेंगे । भगवान से मिलाप करानेवाले गुरु हैं ।
गुरु के प्रभाव से ही परम गुरु का योग होता है । पंचसूत्र में कहा है - 'गुरु-विणओ मोक्खो ।' योग दृष्टि समुच्चय में कहा है - गुरु-भक्ति के प्रभाव से तीर्थंकरों के दर्शन होते हैं । आयपरसमुत्तारो आणावच्छल्लदीवणाभत्ती । होइ परदेसिअत्ते अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥ ५६५ ॥ एत्तो तित्थयरत्तं सव्वन्नुत्तं च जायइ कमेणं । इअ परमं मोक्खंगं सज्झाओ होइ णायव्वो ॥ ५६६ ॥
- पंचवस्तुक अध्यात्म गीता : नैगम नय अंश से भी पूर्ण मानता है । आठ प्रदेश शुद्ध हैं अतः समस्त जीव शुद्ध हैं ।। व्यवहारनय भेद करता है । सिद्ध शुद्ध है । संसारी अशुद्ध हैं । अशुद्ध के भी भेद । 'अशुद्धपणे पण-सय तेसठी भेद प्रमाण, उदय-विभेदे द्रव्यना भेद अनन्त कहाण; शुद्धपणे चेतनता, प्रगटे जीव विभिन्न, क्षयोपशमिक असंख्य, क्षायिक एक अनन्त ॥ ५ ॥
५६३ के अतिरिक्त आगे बढ़े तो अशुद्ध जीवों के अनन्त भेद भी हो सकते हैं ।
शुद्धता से भी अनेक प्रकार से चेतनता प्रकट होती है, उसमें मुख्य दो प्रकार है : (१) क्षायोपशमिक एवं (२) क्षायिक । क्षायिक एक ही है और क्षायोपशमिक असंख्य है ।
(कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ४९१)