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कोई भी वस्तु अनन्त धर्मात्माक (धर्म अर्थात् गुण) है, यह जैन दर्शन की मान्यता है ।
किसी एक धर्म को आगे करके, अन्य धर्म को गौण करके, जो व्याख्या की जाये वह 'नय' है ।
बोलते समय कोई सभी धर्म एक साथ नहीं बोले जा सकते । तीर्थंकर भी एक साथ सब नहीं बोल सकते, परन्तु गौण एवं मुख्यतापूर्वक क्रमशः बोलते हैं ।
वाणी सदा एक ही दृष्टिकोण को एक साथ प्रस्तुत कर सकती है । शब्दों की यह मर्यादा है । यह मर्यादा नहीं समझने से ही अनेक मतभेद खड़े होते रहते हैं ।
अपार्थिव आस्वाद भव्यात्मन् ! भोजनना षड्रस पौद्गलिक पदार्थो जीताना स्पर्श वडे सुखाभास उत्पन्न करे छे. कंठ नीचे उतरी गया पछी तेनो स्वाद चाल्यो जाय छे, ज्यारे आत्मामा रहेलो स्वयं शांतरस सर्वदा सुख आपनारो छे. तेमां पौद्गलिक पदार्थोनी जरुर रहेती नथी. ते आत्मामां छूपायेलो छे. आत्मा वडे ज प्रगट थाय छे.
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***** कहे कलापूर्णसूरि - १
कहे।