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अध्यात्म गीता : संग्रहे एक आया वखाण्यो, नैगमे अंशथी जे प्रमाण्यो, विविध व्यवहार नय वस्तु विहंचे, अशुद्ध वली शुद्ध भासन प्रपंचे ॥
आज नय, निक्षेप, प्रमाण इत्यादि का ज्ञान अत्यन्त ही कम रहा है। पू. देवचन्द्रजी इस ज्ञान के तलस्पर्शी अभ्यासी है ।
संग्रह नय से आत्मा एक है ।
नौ तत्त्वों में १, २, ३, ४, ५, ६ प्रकार से आत्मा बताई है । अपेक्षा बदलने के साथ भेद भी बदल जाते है । भिन्न-भिन्न स्थानों से भिन्न-भिन्न दृश्य दृष्टिगोचर हो, उस प्रकार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत होते है ।
जैन दर्शन को अच्छी तरह समझना हो उसे अपेक्षा समझनी ही पड़ेगी । कौनसी बात किस अपेक्षा से कही गई है ? जो यही नहीं जानता है वह पाट पर क्या बोलेगा ?
नयवाद अर्थात् अपेक्षावाद । नय अर्थात् दृष्टिकोण । नैगमनय अंश से आत्मा मानता है । व्यवहारनय जीवों के विभाग करता है ।
यदि सब एक ही हैं तो साधना की आवश्यकता ही क्या है ? भक्त एवं भगवान, गुरु एवं शिष्य, सिद्ध एवं संसारी ऐसे भेद किस लिए हैं ?
यह व्यवहार का तर्क है । उस की अपेक्षा से यह तर्क सही है । मैत्री आदि भावनाओं के लिए संग्रहनय को आगे करें । पालन में व्यवहार नय एवं हृदय में निश्चय नय अपनाये वह नयवाद समझा हुआ कहा जायेगा ।
घर की वृद्धा सब को एक समान नहीं परोसती । जिसको जितना हजम हो, अनुकूल हो वह और उतना ही देती है । उसी तरह भिन्नभिन्न अवस्थाओं के लिए भिन्न-भिन्न नयों का आश्रय लेना है ।
व्यवहार नय का कार्य भेद करने का है । कहे कलापूर्णसूरि - १ *****
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