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भी चपल है ।
आंख आदि इन्द्रियों के द्वारा मन चंचल बनता है । अतः मन वश में करने पर विजयी होना जरूरी है ।
योगशास्त्र में... प्रथम इन्द्रियों पर विजय । फिर कषायों पर विजय । उसके बाद मनोजय, यह क्रम बताया है ।
पूज्य कनकसूरिजी ने हमें संस्कृत की दो बुकें, छ: कर्मग्रन्थ तक के अध्ययन के बाद वैराग्य-शतक, इन्द्रिय पराजय शतक इत्यादि पढने की प्रेरणा दी थी । उनकी धारणा यह थी कि जितेन्द्रिय बने वही साधक बन सकता है ।
पं. भद्रंकरविजयजी महाराज कई बार कहते - 'तुम्हें क्या बनना है ?' विद्वान या आराधक ? गीतार्थ बनना ।' यह उनका मुख्य स्वर था । गीतार्थ बनने के लिए जितेन्द्रिय बनना पड़ता है।
यह बात सामने रखकर ही कहा गया हैं कि त्रिगुप्ति गुप्त मुनि एक क्षणभर में इतनी कर्म-निर्जरा कर लेता है जो अज्ञानी करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर सकता ।'
आज ही भगवती के पाठ में आया है 'कात्यायन गोत्रीय स्कंधक भगवान महावीर से दीक्षा ग्रहण करता है और भगवान स्वयं ही उसे कैसे चलना, खाना, पीना, बोलना, सोना इत्यादि की शिक्षा देते हैं । यह समस्त समिति एवं गुप्ति की ही शिक्षा है ।
* तीनों योगों में कोई भी गड़बड़ी हुई हो उसके लिए हम -
सव्वस्सवि देवसिय दुच्चितिय - मन का पाप दुब्भासिय - वचन का पाप दुच्चिट्ठिय - काया का पाप मिच्छामि दुक्कडं । यह सूत्र बोलते हैं ।
इस सूत्र में पूरा प्रतिक्रमण समाया हुआ है, ऐसा कहें तो भी चले ।
***** कहे कलापूर्णसूरि - १
४८६ ****************************** कहे