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विश्वास अत्यन्त सुदृढ होता जाता है ।
स्वाध्याय से अनुप्रेक्षा शक्ति बढती है । एक शब्द के अनेक अर्थ बताने की शक्ति बढती है ।
- अन्य दार्शनिकों को प्रभु के आगम नहीं मिले हैं, फिर भी वे एक प्रभु के नाम पर कितने गर्वोन्नत हैं ?
हम अभी तक प्रभु के नाम की महिमा समझे ही नहीं है।
भगवान कितने उदार हैं ? मोक्ष में गये तो भी नाम छोड़कर गये । आप अपना प्रतिष्ठित नाम क्या किसी को उपयोग करने के लिए देते हैं ? आपको सन्देह है कि कहीं वह नाम पर उल्टा-सीधा कर डालेगा । भगवान ने अपना नाम उपयोग करने की छूट दी है।
- छ: माह में चौथाई गाथा कण्ठस्थ होती हो तो भी नया अध्ययन करने का उद्यम छोड़ें नही, ऐसा ज्ञानी कहते है । हम में ऐसा तो कोई भी नहीं होगा जो छ: महिनों में चौथाई गाथा भी कण्ठस्थ नहीं कर सके ।
'बारसविहंमि वितवे, सभितर - बाहिरे कुसलदिढे ।
नवि अस्थि नवि होही, सज्झाय समं तवोकम्मं ॥'
भगवान् के द्वारा प्ररूपित बारहों प्रकार के तप में स्वाध्याय के समान कोई तप है ही नही और होगा नहीं ।
अध्यात्म गीता
'द्रव्य सर्वना भावनो, जाणग पासग एह, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता, रमता परिणति गेह । ग्राहक रक्षक व्यापक, धारक धर्म समूह, दान, लाभ, भोग, उपभोग, तणो जे व्यूह ॥'
हमारे स्वयं के घर में कितनी समृद्धि भरी है, जो यहां जानने को मिलता है। शरीर के विषय में हम सब जानते हैं, परन्तु आत्मा के विषय में हम कुछ नहीं जानते ।
आत्म-रमणी मुनि सर्व द्रव्यों के भाव को जानते है और देखते है और जानकर प्रत्येक गुण को प्रवृत्ति कराते है, जैसे आप दुकान के नौकरों को प्रवृत्ति कराते हैं ।
अपनी स्वयं की ही शक्तियों का ज्ञान नहीं होने से हमने कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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