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अध्यात्म गीता 'जिणे आतमाशुद्धताए पिछाण्यो,तिणेलोक-अलोकनो भावजाण्यो; आत्मरमणी मुनिजगविदिता, उपदिशी तिणेअध्यात्म - गीता ॥३॥'
कतिपय जिज्ञासु श्रावकों के लिए पू. देवचन्द्रजी ने इस अध्यात्म गीता की रचना की है । वैदिकों में भगवद्गीता प्रसिद्ध है, उस प्रकार अपनी यह गीता है ।
श्रुतकेवली दो कहे गये हैं : १. सम्पूर्ण - द्वादशांगी के ज्ञाता । २. आत्म-रमणी मुनि ।
समस्त आगमों का सार आत्म-रुचि, आत्म-ज्ञान एवं आत्म-रमणता है; पररुचि, परभावरमणता से रुकना है ।।
'आगम-नोआगम तणो, भाव ते जाणे साचो रे । आतम भावे स्थिर होजो, परभावे मत राचो रे ॥'
यह ज्ञान का सार है, मुष्ठि है । इतनी मुट्ठी में सब समा गया । शेष उसका विस्तार है ।
'निज स्वरूप जे क्रिया साधे, तेह अध्यात्म कहिये रे.'
पूज्य आनंदघनजी अध्यात्म की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिस क्रिया से आपका स्वरूप समीप आये वह सच्चा अध्यात्म है। जिससे हम स्वरूप से दूर जायें वह अध्यात्म नहीं है।
प्रत्येक क्रिया के समय यह व्याख्या नजर के समक्ष रखें तो जीवन कितना बदल जायेगा ?
अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय - ये पांच प्रकार का योग हरिभद्रसूरिजी ने बताया है। प्रारम्भ अध्यात्म से हुआ है।
तत्त्व-चिन्तन करना अध्यात्म है । किसका तत्त्व-चिन्तन ? ' आगम के आधार पर तत्त्व-चिन्तन करना चाहिये । वह चिन्तन मैत्री आदि से युक्त होना चाहिये, तथा जीवन में विरति होनी चाहिये ।
जैन-दृष्टि से यह अध्यात्म है ।
निष्णात एवं विशेषज्ञ वैद्य समस्त रोगों का उपचार एक औषधि से करता है। उस प्रकार भगवान हमारे भव-रोग का उपचार एकही औषध से करते हैं । वह औषध है : अध्यात्म ! '
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