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संवर-निर्जरा मुक्ति का मार्ग है । स्वाध्याय से संवर-निर्जरा दोनों होते है ।
स्वाध्याय से नया नया संवेग उत्पन्न होता है । स्वाध्याय करते समय उल्लसित हृदय विचार करता है - भगवान द्वारा कथित तत्त्व ऐसे अद्भुत हैं ? यह संवेग है । स्वाध्याय से भगवान के मार्ग में निश्चलता-निष्कंपता होती है। स्वध्याय बड़ा तप है । तप से निर्जरा होती है।
स्वाध्याय से दूसरों को समझाने की शक्ति उत्पन्न होती है। दान कौन कर सकता है ? जिसके पास धन हो वह । उपदेश कौन दे सकता है ? जिसके पास ज्ञान का खजाना हो वह ।
वाचना आदि पांचों प्रकार का जो स्वाध्याय करता है उस में उपदेशक शक्ति स्वयं उत्पन्न हो जाती है।
स्वाध्याय से आत्महित का ज्ञान होता है।
स्वाध्याय से भगवान हृदय में निवास करते हैं। क्योंकि आगम स्वयं भगवान है । भगवान हृदय में आते ही अहित से निवृत्ति
और हित की ओर प्रवृत्ति होती है । आप हित ही नहीं जाने तो प्रवृत्ति कैसी करोगे ? अहित से कैसे रुकोगे ? पंचसूत्र में कहा है -
'हिआहिआभिण्णे सिया ।'
___ 'हिताहिताभिज्ञः स्याम् ।' भगवन् ! मैं मूढ-पापी हूं । आप मुझे हित-अहित का ज्ञाता बनायें ।
आवेश में आकर दोषारोपण, निन्दा इत्यादि करके हम नित्यप्रति कितना अहित करते हैं ?
हित-अहित से अनभिज्ञ व्यक्ति कर्तव्य नहीं करता, अकर्तव्य करता रहता है । ऐसी आत्मा भवसागर को कैसे पार कर सकती है ? एकबार दुर्गति में पड़ने पर पुनः उपर किस प्रकार आ सकेंगे ? हिमालय की खाई में लुढकने के बाद मनुष्य फिर भी बच सकता है, परन्तु दुर्गति में पड़ने के बाद बचना कठिन है ।
पण्डित अमूलखभाई : 'दुर्गति आदि में भवितव्यता भी कारणरूप है न ?
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