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किसी का अहित होता हो ।
चारों माताएं (वर्णमाता, नवकारमाता, अष्टप्रवचन माता और ध्यानमाता) जिनवाणी से सम्बन्धित ही हैं । चारों माताओं की माता यह जिनवाणी ही है ।
सामायिक से बिन्दुसार (चौदहवा पूर्व) तक जिनवाणी विस्तृत है।
माता वही कहलाती है जो बालक का अहित निवारण करती है, एकान्त से हित ही करती है । यह माता शाश्वत सुख देकर परम हित करती है।
इसीलिए लिखा है - 'महानंद तरु सींचवा अमृतपाणी'
महानंद अर्थात् मोक्ष; मोक्ष-वृक्ष का सिंचन करने के लिए यह जिनवाणी अमृत की धारा है ।।
बाह्य तृषा जल से शान्त होती है, परन्तु आन्तरिक तृषा तो जिनवाणी से ही शान्त होती है । जल नहीं पियोगे तो अजीर्ण होगा, स्वास्थ्य बिगड़ेगा । उसी तरह जिनवाणी न मिले तो भावआरोग्य बिगड़ता है ।
महामोहरूपी पुर (दैत्यनगर) को भेदने में यह जिनवाणी इन्द्र है, भयंकर भव-अटवी को छेदने में कृपाणी है, कुल्हाड़ी है ।
बन्ने दळदार ग्रंथ मळ्या. घणी खुशी थई. पूज्यश्रीनी आ पवित्र वाणी-गंगाने वहेती करी तमो बन्ने पूज्य गणिवर्योए अतीव महत्त्वनुं संपादन कार्य कर्यु छे जे धन्यवादार्ह छे.
. - पंन्यास विश्वकल्याणविजय
श्री पार्श्व प्रज्ञालय तीर्थ.
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*** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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