________________
उत्तर : नौकारसी आदि के पच्चक्खाण स्वयं पालनार्थ हैं । दूसरों के लिए आहार आदि लाने में दोष नहीं है। आप मिष्ठान्न नहीं खाते तो दूसरों के लिए भी नहीं लाना ऐसा नहीं है । यदि ऐसा हो तो सेवायोग ही समाप्त हो जाये । विनय-वैयावच्च चले जायें तो साधना में रहेगा क्या ?
नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी ने कहा है - दान और दान के उपदेश का कहीं भी निषेध नहीं है ।
असांभोगिक प्राघूर्णक साधु हो तो उसे गोचरी के घर बताने । यदि सांभोगिक हो तो स्वयं ही गोचरी लाकर दें ।
स्वयं के उपवास हो तो भी आचार्य, उपाध्याय, बालमुनि, ग्लान आदि के लिए आहार लाने में दोष नहीं है ।
जिन-वचनामृत घोट-घोट कर पीनेवाले साधु को स्व-पर का भेद नहीं होता । इसीलिए वे स्व-पर की पीड़ा का परिहार हो इस प्रकार वर्तन करते है ।
वैचावच्च पर-पीड़ा - परिहारक है । __ज्ञानाचार स्वयं के लिए ही है, परन्तु वीर्याचार स्व-पर दोनों के लिए है।
वैयावच्च वीर्याचार के अन्तर्गत है ।
वैयावच्च की भी विधि जाननी चाहिये, अन्यथा भक्ति के स्थान पर अभक्ति हो जायेगी ।
__ स्वाध्याय की वृद्धि हो, नित्य का कार्यक्रम व्यवस्थितरूप से चले, सुख से हितोपदेश दिया जा सके, बल की हानि न हो, कफ की उत्पत्ति न हो, दूसरों का यह सब ध्यान में रखकर वैयावच्च करना है।
स्वयं को ज्ञान आदि की पुष्टि होती है । वैयावच्च नहीं किया जाये तो कर्म-निर्जरा रुक जाये । वैयावच्च करनेवाला अपने अनुष्ठान भी बराबर करे । अपने अनुष्ठान छोड़कर वैयावच्च न करे ।
भरत-बाहुबली ने पूर्व जन्म में ५०० साधुओं की सेवा की थी, जिसके प्रभाव से एक चक्रवर्ती बने और दूसरे को पराघातपन मिला । भरहेसर सज्झाय में सर्व प्रथम भरत का ही नाम आता
४६८
******************************
कहे