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• शुक्लध्यान के कुल चार में से दो भेदों से केवलज्ञान प्राप्त होता है । शेष दो अयोगी गुणस्थानक पर मिलते हैं ।
* 'ध्यान-विचार' में अभी ही ध्यान के कुल भेद चार लाख, बयालीस हजार, तीनसौ अडसठ (४४२३६८) पढकर आये ।
ध्यान दो प्रकार से आता है - १. पुरषार्थ से, २. सहजता से ।
तीर्थंकरों को नियमा पुरुषार्थ से ही ध्यान सिद्ध होता है, क्योंकि उन्हें दूसरों को मार्ग बताना है ।
पुरुषार्थ से होनेवाले ध्यान को 'करण' कहा जाता है । सहजता से होनेवाले ध्यान को 'भवन' कहा जाता है । भवनयोग में मरुदेवी का उदाहरण श्रेष्ठ है । करणयोग में तीर्थंकरों का उदाहरण श्रेष्ठ है ।
. घड़ी में केवल सुइयें का ही नहीं, मशीन के समस्त पुर्जी का महत्त्व है। उसी तरह साधना में भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि समस्त अंगों का महत्त्व है। एक की भी उपेक्षा नहीं चलती । गौणता या प्रधानता चल सकती है, परन्तु उपेक्षा नहीं चलती ।
* एकाग्रतापूर्वक किया गया चिन्तन ध्यान है ।
- योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति एवं सामर्थ्य के द्वारा कर्मों का भिन्न-भिन्न प्रकार से नाश होता है, जो 'ध्यान-विचार' के द्वारा समझ में आयेगा । कभी पढेंगे तो बहुत आनन्द आयेगा । कोई कर्म को उपर ले जाता है, कोई नीचे ले जाता है, कोई तिलों में से तेल निकालने की तरह कर्मों को निकालता है; इस प्रकार की व्याख्याएं वहां बताई गई हैं ।
* सांप के बिल में बालक गिर पड़ा । मांने उसे खींचकर बाहर निकाला, बालक को कई खरोंच आ गई, खून निकला और वह रोने लगा । माता ने अच्छा किया कि बुरा ?
बालक उस समय शायद कहेगा - माने बुरा किया परन्तु दूसरे लोग कहेंगे - 'मांने अच्छा किया, ऐसा ही करना चाहिये ।'
गुरु भी कईबार इस तरह अधिक दोषों से शिष्य को बचाने के लिए उसका निग्रह करते हैं । उस समय शिष्य को चाहे समझ में न आये, परन्तु गुरु के निग्रह में उसका कल्याण ही छिपा होता है।
- संयम ढाल है, तप तलवार है। कर्मों के आक्रमण के समय
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