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'कहे कलापूर्णसूरि' पू. कलापूर्णसूरि के हाथ में
श्रीमती पन्नाबेन दिनेशभाई रवजीभाई महेता परिवार द्वारा आयोजित उपधान तप प्रारम्भ,
३८० आराधक
२७-१०-१९९९, बुधवार
का. व. ३
. नवपदों की आराधना करना अर्थात् आत्मा के ही शुभ भावों की आराधना करना । अरिहंत आदि पद अपनी ही विशिष्ट अवस्थाएं हैं । हममें से कोई अरिहंत बनकर या कोई आचार्य, उपाध्याय या साधु बनकर सिद्ध बनेंगे ।
__आखिर सिद्ध तो बनना ही पड़ेगा । आज अथवा कल बनना ही पड़ेगा, उसके बिना उद्धार तो होना ही नहीं है।
* ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विशुद्ध आराधना इसी जन्म में मुक्ति प्रदान करती है । काल, संघयण आदि की अनुकूलता नहीं मिले तो दो या तीन भव, सात-आठ भव तो बहुत हो गये । इतने भवों में तो मोक्ष मिलना ही चाहिये ।।
जब भी सिद्धि मिलेगी तब अरिहंत आदि की भक्ति से ही मिलेगी; तो फिर क्यों अभी से ही अरिहंत आदि की भक्ति शुरू न करें ? कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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