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________________ तपपद जाणंता तिहुं नाण समग्गह. आज जैन संघमें तप की अत्यन्त महिमा है और वह होनी ही चाहिये । इससे ही हम उजले हैं । मन की निर्मलता देने वाला तप है । स्वयं भगवान भी, उसी भवमें मोक्ष में जाने वाले हैं, यह जानते हुए भी घोर तप करते हैं । उसका कारण क्या है ? तप की महिमा समझने के लिए तीर्थंकरो का जीवन ही पर्याप्त है । 'मैं मोक्षमें जानेवाला हूं' यह भगवान जानते हैं और यह भी जानते हैं कि कर्म क्षय हुए बिना मोक्ष नहीं है तथा यह भी जानते हैं कि तप के बिना कर्मों का क्षय नहीं होगा । अनेक व्यक्ति कहते हैं कि हम आलोचना में तप तो नहीं कर सकते । आप कहोगे वहां पैसे खर्च कर लेंगे । क्या ऐसे चलेगा ? तप कर्म-निर्जरा का अनन्य साधन है । . तप जिन-शासन को दीपानेवाला है । आठ प्रभावकों में तपस्वी भी पांचवा प्रभावक है । वह कैसा होगा ? 'तप गुण ओपे रे रोपे धर्मने, गोपे नहीं जिन आण; आश्रव लोपे रे, नवी कोपे कदा, पंचम तपसी ते जाण.' तप-गुण से ओपे, धर्म को रोपे, भगवान की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करे, आश्रव लोपे और कभी क्रोध न करे, वह सच्चा तपस्वी है। 'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक मळ्युं. पूज्यश्रीना प्रवचनोमां अमृत-अमृत ने अमृत ज होय. एमां बीजुं कांई कहेवा जेवू ज नथी. - पंन्यास मुक्तिदर्शनविजय गोरेगांव, मुंबई. ४६२ ****************************** * कहे कलापूर्णसूरि - १ कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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