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'सर्वभूताविनाभूतं स्वं पश्यन् सर्वदा मुनिः । मैत्र्यादि-भावसंमग्नः क्व क्लेशांशमपि स्पृशेत् ॥'
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योगसार
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समस्त जीवों के साथ स्वयं को अभिन्न देखनेवाले मुनि कषाय के अधीन कैसे होंगे ?
✿ संसार यदि सागर है तो चारित्र जहाज है । बड़े सागर को भी छोटी सी नौका पार कर लेती है । उस प्रकार अनन्त संसार को एक भव का चारित्र तोड़-फोड़ कर एक ओर रख सकता है ।
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दृढ प्रहारी, अर्जुनमाली आदि ने क्या किया ? इस चारित्र के प्रभाव से छ: महिनो में तो संसार को चूर चूर कर दिया । ✿ छोटे थे तब हम मिट्टि में खेलते थे । अब बड़े हो गये हैं अत: वह सब छोड़ दिया, परन्तु पर-भाव की रमणता अभी तक कहां छोड़ी है ? इसी कारण से ज्ञानियों की दृष्टि में अभी भी हम बालक ही हैं ।
चारित्र से 'बालपन' जाता है, 'पाण्डित्य' आता है । ✿ आत्म-स्वभावरूप चारित्र आने पर क्षमा पांचवे प्रकार की स्वभाव - क्षमा बनती है ।
✿ चारित्र का प्रारम्भ सामायिक से होता है । चारित्र की पूर्णता यथाख्यात में होती है ।
पुस्तक 'कह्युं कलापूर्णसूरिए' मल्युं. आनंद थयो. पूज्यश्रीना पीरसायेला सुंदर पदार्थोंने तमोए सोहामणो ओप आप्यो. सर्व सुधी पहोंचता आ अवतरणो खरेखर ज मननीय छे
कहे कलापूर्णसूरि - १ *****:
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हर्षबोधिविजय
हुबली.
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