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लोकस्थित सिद्धों को, मध्यलोक के मेरु पर्वत को, अधोलोक की सातों नारकों को यहां बैठे-बैठे देख सकते हैं ।
सर्व द्रव्य-क्षेत्र आदि को श्रुतज्ञानी देखते है, परन्तु पर्याय का अनन्तवा भाग ही देखते है; जबकि केवलज्ञानी सर्व द्रव्य, सर्व पर्यायों को जानते है ।
• आत्मा स्वयं ज्ञानरूप है । ज्ञान से आत्मा और आत्मा से ज्ञान अलग नहीं है । जिस प्रकार तन्तु से वस्त्र और वस्त्र से तन्तु अलग नहीं है।
चारित्रपद 'आराहिअ खंडिय सक्किअस्स,
नमो नमो संजम वीरिअस्स ।'
ज्ञान की जितनी निर्मलता होगी, चारित्र की ही उतनी ही निर्मलता समझें ।
* ज्ञान बीज है तो चारित्र फल है ।
* वृक्ष की शोभा फलों से होती है । फल रहित वृक्ष बांझ कहलाता है तो चारित्ररहित ज्ञान भी बांझ नहीं ?
. चारित्र अर्थात् स्वभाव में स्थिरता । . 'अकसायं खु चारित्तं कसायसहिओ न मुणी होइ ।' कषाय रहितता ही चारित्र है । मुनि कषाययुक्त नहीं होते ।
. कषाय चारित्र मोहनीय कर्म है । चारित्रावरणीय कर्म की उपस्थिति में चारित्र किस प्रकार हो सकता है ? इसीलिए कहता हूं कि जब आप कषाय करते हैं तब चारित्र भाग जाता है।
चारित्र की स्पष्ट बात है - 'जहां कषाय हो, वहां मैं नहीं रह सकता । आप किसे रखना चाहते हैं ? कषाय को या मुझे ?'
एक ओर आप कहते है - 'मुझे संसार में रहना नहीं है, शीघ्र मोक्ष में जाना है और दूसरी ओर आप कषाय करते रहते हैं; यह कैसे चलेगा ?'
का = संसार, अय = लाभ, जो संसार का लाभ करा दे वह कषाय ।
** कहे कलापूर्णसूरि - 8
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