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विषय प्रतिभास ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है । जिस ज्ञान के द्वारा दोषों की निवृत्ति एवं गुणों की प्राप्ति न हो उसे ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ?
'स्वभाव लाभ-संस्कार कारणं ज्ञानमिष्यते ।'
आवेश, अज्ञान, जड़ता, क्रोध आदि से निवृत्त न बनें तो ज्ञानियों की दृष्टि में वह ज्ञान ही नहीं है। ज्ञान का फल विरति है, चारित्र है । यदि वह प्राप्त न हो तो ज्ञान किस काम का ? लाभ प्राप्त न हो तो दुकान किस काम की ? फल न मिलें तो वृक्ष किस काम का ?
. समस्त क्रियाओं का मूल भले ही श्रद्धा हो, परन्तु यह भूलने जैसा नहीं है कि श्रद्धा का मूल भी ज्ञान है ।
. रुचि एवं जिज्ञासा के अनुसार ही ज्ञान मिल सकता है । विनय के अनुसार ही ज्ञान फल दे सकता है ।।
. पांच ज्ञानों में अभ्यास-साध्य ज्ञान सिर्फ श्रुतज्ञान है । वह स्व-पर प्रकाशक होने से तीनों लोक के लिए उपकारी बनता है।
दीपक की तरह वह स्व-पर प्रकाशक है । आपके आंगन में जलता दीपक आप को ही उपयोगी हो, ऐसी बात नहीं है । वह आने-जानेवालों सबके लिए काम आता है । ज्ञान भी दीपक है । दीपक ही नहीं, ज्ञान सूर्य, चन्द्रमा और मेघ भी है।
नल में से पानी लेते हैं, परन्तु बिल भरना पड़ता है । बिजली का उपयोग करते हैं, पर बिल भरना पड़ता है । बादल बरसात बरसाते हैं, सूर्य-चन्द्र प्रकाश देते है, परन्तु कोई बिल भरना नहीं पडता । सभी मुफ्त ।।
ज्ञान भी सूर्य, चन्द्रमा, मेघ जैसा है । कोई बिल नहीं, कोई खर्च नहीं । 'दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वली जिम रवि - शशि - मेह'
- पांच इन्द्रियों से सीमित जानकारी ही मिलती है, परन्तु श्रुतज्ञान से आप यहां बैठे अखिल ब्रह्माण्ड को जान सकते हैं ।
शत्रुजय पर जाकर आप खड़े-खड़े पालीताना, कदम्बगिरि, घेटी, नोंघण-वदर आदि कितने गांवों को जान सकते हैं ?
__ यह तो चर्म-चक्षु हैं, परन्तु श्रुतज्ञान की आंखों से आप ऊर्ध्व (कहे कलापूर्णसूरि - १ *
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