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इसीलिए भगवान कहते हैं कि पुद्गल के साथ राग-द्वेष मत करो, मध्यस्थ रहो । मध्यस्थ रहना ही मुक्ति का मार्ग है। _ 'देखिये मार्ग शिवनगरनो, जे उदासीन परिणाम रे; तेह अणछोडतां चालिये, पामिये जिम परम धाम रे...'
- उपाध्याय यशोविजयजी . ज्ञान के बिना आप भक्ष्य-अभक्ष्य या पेय-अपेय आदि नहीं जान सकते ।
* जड क्रियावादी ज्ञान की निन्दा करते हुए कहता है -
'पठितेनाऽपि मर्तव्यमपठितेनाऽपि मर्तव्यम्, किं कण्ठशोषणं कर्तव्यम् ?'
पढा हुआ भी मरेगा और अनपढ भी मरेगा तो व्यर्थ कण्ठशोष क्यों करें ?
यह मानकर पढना बन्द तो नहीं कर दिया न ?
पुस्तकें प्रिय लगती है, परन्तु उन्हें पढना प्रिय लगता है कि सिर्फ संग्रह करना प्रिय लगता है ? आप कुछ नहीं पड़ेंगे तो आपका परिवार क्या पढेगा ?
मैंने तीस वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की । पहले से ही अध्यात्म की रुचि । उसमें 'रामः रामौ रामाः' पढना कहां प्रिय लगे ?
लेकिन दृढ संकल्प था । अनुवाद केवल बासी माल है । कर्ता का सीधा आशय जानना हो तो संस्कृत सीखना ही चाहिये । आठ-दस वर्षों में सीख गया । कहीं उलझन नहीं लगी । ज्ञान स्वयं ही उलझन मिटानेवाला है। वहां उलझन का प्रश्न ही कहां है ? रुचिपूर्वक अध्ययन करके देखो, उसमें रस लो,. उलझन कहीं चली जायेगी ।
* प्रथम ज्ञान, फिर अहिंसा । ज्ञान के अनुसार ही आप अहिंसा का पालन कर सकते हैं ।
. त्रिगुप्ति से गुप्त ज्ञानी एक सांस में इतने कर्मो का क्षय कर सकता है कि अज्ञानी करोड़ों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता ।
. . विषय प्रतिभास, आत्मपरिणतिमत्, तत्त्व संवेदन अष्टक प्रकरण में उल्लिखित ये ज्ञान के तीन प्रकार है ।
** कहे कलापूर्णसूरि - १
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