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काकटूर २४ तीर्थकर धाम-प्रतिष्ठा, वि.सं. २०५२, वैशाख ।
२३-१०-१९९९, शनिवार
आ. सु. १४
मुक्ति के पथिकों को नवपदों का आलम्बन परम हितकर हैं, आत्मस्वरूप में स्थिर करनेवाला हैं । प्रत्येक पद आत्मा का ही नैश्चयिक स्वरूप है ।
वस्त्र की उज्ज्वलता शुद्धता के अनुसार होती है, उस प्रकार अपनी आत्मा की उज्ज्वलता चित्त की निर्मलता के अनुसार होती है।
धवल सेठ, गोशाला, संगम आदि की चित्तवृत्ति कैसी थी ?
यहां मिथ्यात्व की मलिनता स्पष्ट दिखती है । सम्यक्त्वी तो देव-गुरु एवं उपकारी के विरुद्ध कभी खड़ा नहीं होगा ।
__ वस्त्र की मलिनता शीघ्र दिखती है, लेकिन आत्मा की मलिनता शीघ्र नहीं दिखती । हां, आप वाणी एवं व्यवहार को देखकर अनुमान अवश्य लगा सकते हैं ।
- ज्ञान का स्वभाव ज्ञायक है; स्व-पर बोध उसका लक्षण है, मति आदि पांच उसके प्रकार हैं ।
. धर्मास्तिकाय आदि भी यहीं है, हम उनके भीतर ही रहते हैं, फिर भी यह सम्बन्ध हानिकारक नहीं है, सिर्फ पुद्गल का सम्बन्ध हानिकारक है । कहे कलापूर्णसूरि - १ *****
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