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तीर्थ की स्थापना करने के बाद ३० वर्ष तक भगवान ने उसे सुदृढ बनाया । अब शेष इक्कीस हजार वर्ष तक शासन चलानेवाले गुरु ही है न ? गुरु को छोड़ो तो भगवान को ही छोड़ा हुआ गिना जायेगा ।
देव, गुरु एवं धर्म - इन तीनों में गुरु बीच में हैं, जो देव तथा धर्म की पहचान कराते हैं । 'मध्यग्रहणाद् आद्यन्तग्रहणम् ।' गुरु पकड़ने पर देव एवं धर्म स्वयं पकड़े जा सकेंगे, उसी प्रकार से गुरु को छोड़ने पर देव एवं धर्म दोनों अपने आप छूट जायेंगे ।
सम्यग् ज्ञान से विपर्यास बुद्धि, स्वच्छन्द मति आदि का विध्वंस होता है ।
मति, श्रुत आदि ज्ञान के पांच प्रकार हैं । ये ज्ञान गुरु की उपासना से ही प्राप्त होते हैं ।
देव-गुरु की सेवा ज्यादा तो ज्ञान ज्यादा । यह ज्ञान निर्मल होता है, श्रद्धा उत्पन्न करता है, श्रद्धा हो तो उसे परिपुष्ट करता है, चारित्र में प्रवर्तन कराता है ।
ज्ञान की तीक्ष्णता, एकाग्रता ही चारित्र है जो मैंने बार-बार समझाया है ।
चलते समय आंखें और पैर एक साथ कार्यरत रहते हैं । आंख को ज्ञान, पांव को चारित्र कहें तो यहां दोनों एक हुए हैं । क्या आप आंखें बन्ध करके चल सकते हैं ? चश्मे की तरह आंखों को पैक करके कहीं रख सकते हैं ? क्या पैरों को एक और रखकर चल सकते हैं ? नहीं; चलते समय आंखें और पैर दोनों आवश्यक हैं । मोक्ष की साधना में भी ज्ञान एवं क्रिया दोनों समानरूप से आवश्यक हैं । आप एक की भी उपेक्षा नहीं कर सकते । 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ।'
जो निरन्तर प्रवृत्तिशील, उपयोगशील रहे, वह सच्चा ज्ञान है । निरन्तर जो ज्ञान से नियन्त्रित हो, वही सच्चा चारित्र (क्रिया) है ।
श्रुतज्ञान को अपेक्षाकृत केवलज्ञान से भी अधिक महत्त्व दिया गया है । क्या श्रुतज्ञान के बिना कोई केवली बना है ? बीज का महत्त्व ज्यादा कि फल का ? बीज श्रुतज्ञान है, फल केवलज्ञान
है ।
कहे क
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