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प्रथम दृष्टि में समाधि देखने को मिलती है, परन्तु इसे गौण समाधि समझें । आगे मिलनेवाली परम समाधि का बीज समझें ।
बीज कभी सीधा नहीं मिलता, क्रमशः मिलता है । प्रथम अंकुर फूटते हैं । उसके बाद क्रमशः तना, शाखा, फूल, फल, बीज आते हैं ।
योगशास्त्र की अष्टांग योग के क्रम से ही रचना हुई है । देखो, मार्गानुसारिता, सम्यक्त्व, बारह व्रत आदि यम-नियमों में समाविष्ट हैं ।
चौथे के अन्त में आसन, पांचवे में प्राणायाम, छठू में प्रत्याहार, उसके बाद १२ प्रकाश तक धारणा, ध्यान एवं समाधि वर्णित हैं ।
- शरीर में दाह होता हो, उसे ही उसकी वेदना का पता लगता है । ऐसी ही वेदना जिसे संसार की अर्थात् राग-द्वेष की अपार वेदना प्रतीत होती हो उसे साधना करनी ही पड़ेगी ।
बाह्य ताप का जल-सिंचन, चंदन-विलेपन आदि से शमन होता है, परन्तु आन्तरिक ताप का जिन-वचन के अलावा अन्य किसी से शमन नहीं होता ।
- ममता - मद - अहंकार का नाश करनेवाले, काउस्सग्गमुद्रामें ध्यान के अभ्यासी, तप के तेज से जाज्वल्यमान, कर्मों को जीतनेवाले, परपरिणति का संग नहीं करनेवाले मुनि करुणा के सागर हैं ।
सागर भी छोटा दिखे हो ऐसी करुणा के स्वामी साधु होते हैं।
• साधना का प्रारम्भ साधु से होता है, आगे बढकर क्रमशः अरिहंत में पूर्ण होती है ।
"जिम तरु-फूले भमरो बेसे'
फूल पर भौंरा बैठता है, परन्तु वह उसे पीड़ित नहीं करता । फूल में भौंरे द्वारा किया हुआ छिद्र कभी देखा हैं ?
ऐसी ही पद्धति मुनि के आहार की है । इसीलिए उसका नाम 'माधुकरी' है ।
'अढार सहस शीलांगना' अढारह हजार शीलांगधारी, जयणायुक्त मुनि को वन्दन करके, (कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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