________________
ही क्रम कहा गया है ।
'गुरुजण पूआ परत्थकरणं च सुहगुरुजोगो ।'
संभव है, गुरु में ऐसी शक्ति न भी हो, तो भी उनकी भावपूर्वक सेवा से शिष्य की शक्तियां खिल उठती ही है । जंबूविजयजी इसके उत्तम उदाहरण हैं ।
पिता गुरु भुवनविजयजी के विरह में उनकी कामली रखी हैं । उसे देखकर वे आज भी गद्गद् होते हैं । परिणाम स्वरूप कैसी शक्तियां प्रकट हुई ? भुवनविजयजी को कौन पहचानता था ? जंबूविजयजी विद्वान एवं भक्त के रूप में विख्यात हुए ।
पिता - गुरु के बिना जंबूविजयजी अकेले पड़ गये । पंन्यासजी श्री भद्रंकरविजयजी के पास एक भाई दीक्षा ग्रहण करने के लिए आये । पंन्यासजी महाराज ने उन्हें जंबूविजयजी के पास भेजे ।
देव ने (भगवान ने) पं. भद्रंकरविजयजी के द्वारा इन्हें भेजे, अत: इनका नाम 'देवभद्रविजय' रखा गया ।
दूसरों को शिष्य देने की बात तो छोड़ो, हम तो उल्टा दूसरों का खींच लें ।
+
✿ निर्ग्रन्थ किसे कहते हैं ?
नौ बाह्य एवं चौदह आन्तर परिग्रह हैं ।
धन, धान्य, वास्तु, क्षेत्र, हिरण्य, स्वर्ण, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य ये नौ बाह्य परिग्रह है ।
चार कषाय + नौ नोकषाय + १ मिथ्यात्व = १४; ये आन्तर परिग्रह हैं । इन सबका त्याग करने वाले निर्ग्रन्थ कहलाते है । ✿ छिद्रवाले स्टीमर में कोई नहीं बैठता । यदि कोई बैठे तो वह डूब जाये ।
अतिचारों के छिद्रवाला साधुत्व हमें संसार - सागर से कैसे पार ले जायेगा ?
हमारा साधुत्व मुक्ति-दाता है, क्या हमें ऐसा लगता है ? अपने संयम को योग्य बनाने के लिए साधु सतत प्रयत्नशील होते है ।
अष्टांग योग यहां भी है । आठ दृष्टियों में क्रमशः आठ योगों के अंग विद्यमान हैं ।
४३० ***
** कहे कलापूर्णसूरि - १