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आत्मा ही उपाध्याय है । कौन सी आत्मा उपाध्याय बन सकती है ? जो आत्मा तप, स्वाध्याय में रत हो, द्वादश अंगों का ध्याता, जगबन्धु एवं जग-भ्राता हो ।
प्रश्न : भ्राता एवं बन्धु में क्या फर्क है ?
उत्तर : सगा भाई भ्राता कहलाता है, समान गोत्रीय बंधु कहलाते हैं।
इस प्रकार उपाध्याय यहां केवल जगत् के बन्धु ही नहीं, भाई भी हैं । इसीलिए कहा है - जगबंधव जगभ्राता रे.
आपत्ति के समय सहायता के लिए भाई आता है । राम-लक्ष्मण, पांच पाण्डवों में यह देखा जा सकता है ।
छः माह तक वासुदेव, भाई का शव लेकर घूमता है, इतना स्नेह होता है । देव को आकर समझाना पड़ता है ।
ऐसा भ्रातृभाव एवं बंधु-भाव हम जगत् के जीवों के साथ रख सकेंगे तब साधना में वेग आयेगा ।
साधु पद : "साहूण संसाहिअसंजमाणं...'
दया-दमन युक्त बनकर संयम की जो साधना करे वह साधु । साधु की व्याख्या हमारे जीवन की व्याख्या बननी चाहिये ।
आगमों में व्याख्या कैसी है ? और हमारा जीवन कैसा है ? इस प्रकार तुलना करनी चाहिये । इन पंक्तियों के दर्पण में स्व-जीवन को देखना चाहिये ।
साधु आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि की सेवा करे, सेवा में आनन्द माने, और पांच समिति का पालन करने में सावधान होते हैं ।
चले तब दृष्टि नीचे - इर्या समिति बोले तो उपयोगपूर्वक - भाषा समिति वस्तु ले, रखे तो पूंजकर - आदानभंडमत्त निक्षेपणा समिति । गोचरी ग्रहण करे तो गवेषणापूर्वक - एषणा समिति डाले तो जयणापूर्वक - पारिष्ठापनिका समिति ऐसा उनका सहज जीवन होता है ।
जो बड़ों की पूजा करते हैं उन्हें ही परोपकार वृत्ति मिलती है और उन्हें ही सद्गुरु मिलते हैं । इसीलिए 'जय वीयराय' में ये (कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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