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पदवी-प्रसंग, मदास, माघ सु. १३, वि.सं. २०५२
२०-१०-१९९९, बुधवार
आ. सु. १० (दशहरा)
व्यवहार से उपाध्याय की व्याख्या देखी, अब निश्चय से देखें ।
_ 'तप सज्झाये रत सदा...' बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय महत्त्वपूर्ण है । ज्ञानरूपी खड्ग तेज हो उतना चारित्र जीवन में आता है । अतः यहां ज्ञान तथा तप (चारित्र) एक हो जाते हैं ।
यही बात लक्ष्य में रखकर उपाध्याय यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' में कहा है - _ 'ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तापनात् तपः ।
तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥' जो ‘आभ्यन्तर तप में बाधक बने वह तप जिनशासन को मान्य नहीं है । बाह्य केवल आन्तर तप को सहायक बने इतना ही । आभ्यन्तर तप के बिना करोड़ वर्षों का तप हो परन्तु ज्ञानी का एक क्षण उससे बढकर होता है ।
'बह क्रोडो वर्षे खपे, कर्म अज्ञाने जेह;
ज्ञानी श्वासोच्छासमां, करे कर्मनो छेह.' उपाध्याय यशोविजयजी का कथन है - 'निश्चय से हमारी
** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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कहे