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ऐसा दुःख बार-बार आये; परन्तु सुख के समय यह विचार आता है कि यह सुख कभी न जाये, सदा रहे । ऐसी वृत्ति से आसक्ति बढती हैं । आसक्ति स्वयं दुःखरूप है, जबकि सिद्धों में ऐसी आसक्ति नहीं है।
• सिद्ध स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र आदि में स्थिर हो गये हैं । हमारी आत्मा में अस्तित्व हैं । हमारी आत्मा में नास्तित्व हैं । हमारी आत्मा नित्य हैं । हमारी आत्मा अनित्य भी हैं । हमारी आत्मा सत् भी हैं । अमारी आत्मा असत् हैं । इसका नाम ही स्याद्वाद हैं । स्वद्रव्य - स्वक्षेत्र आदि की अपेक्षा से अस्तित्व हैं । परद्रव्य आदि की अपेक्षा से नास्तित्व हैं । द्रव्य की अपेक्षा से नित्य हैं । पर्याय की अपेक्षा से अनित्य हैं । एक आगमिक श्लोक है, जो देवचन्द्रजी महाराज के टब्बे
'दव्वं गुणसमुदाओ अवगाहो खित्तं वट्टणा कालो । गुणपज्जयपवत्ती भावो, सो वत्थुधम्मोत्ति ॥' इन चारों की परिणति वस्तु का स्वभाव हैं । द्रव्य : गुणसमुदाय । क्षेत्र : स्व अवगाहना । काल : वर्तना लक्षणरूप । भाव : गुण-पर्यायों का प्रवर्तन ।
ऐसी विचारधारा से मृत्यु आदि के संकट के समय भी समाधि रहती है। मेरे पास मेरा है ही । क्या था जो नष्ट हुआ ?
मेरा था वह मेरे पास है ही । जो मेरा नहीं है वह भले चला जाये । ऐसी विचारधारा के बीज इसमें पड़े हुए हैं ।
. जल प्यास बुझाना बंध नहीं करता, उस प्रकार हमारी आत्मा भी स्वभाव नहीं छोड़ती । जल के बदले कुछ अन्य चलता
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