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________________ जितना पुरुषार्थ उन्होंने स्वयं की आत्मा को कारागार से मुक्त करने के लिए किया उतना ही पुरुषार्थ उन्होंने अन्य जीवों को मुक्त कराने के लिए किया है । इसीलिए भगवान जिन है, तथा जापक भी हैं । तीर्ण है, उस प्रकार तारणहार भी है । बुद्ध है, उस प्रकार बोधक भी है । मुक्त है, उस प्रकार मोचक भी है । . हमारी कठिनाई यह है कि यह संसार कारागार नहीं लगता । सभी कारागार में है, फिर खराब किसका लगेगा ? जब तक यह संसार ( अर्थात् राग-द्वेष) कारागार लगेगा नहीं, तब तक उसमें से मुक्त होने ही इच्छा नहीं होगी । जो कारागार (जेल) को महल मानते हैं, वे कैसे छूट सकते हैं ? - साधु साधुत्व में रहे तो इतना सुखी बने, इतना आनन्द भोगे कि संसार का कोई भी मनुष्य उनकी समानता नहीं कर सकेगा । मनुष्य तो ठीक अनुत्तर विमानवासी देव भी समानता नहीं कर सकेंगे । एक वर्ष के पर्यायवाले मुनि भी अनुत्तर देवों से अधिक सुखी होते है । ऐसा भगवती सूत्र में उल्लेख है ।। हमें यदि ऐसे आनन्द की कोई झलक नहीं दिखे तो आत्मनिरीक्षण करना चाहिये कि कहां कमी है, उसे खोज निकालनी चाहिये । __ हमारी कमी हमारे अलावा दूसरा कोई नहीं खोज सकता । हमारा खोया हुआ आनन्द हमें ही खोजना पड़ेगा । अपने अधिकार की वस्तु कोई कभी नहीं छोड़ेगा, परन्तु अपने अधिकार का आनन्द हम छोड़ रहे हैं। उसके लिए हम कोई प्रयत्न नहीं करते । आश्चर्य है न ? * हम बहिरात्मभाव में इतने मग्न हो गये हैं कि एक मिनिट भी उसमें से छूट नहीं सकते और फिर भी हमें जाना है मोक्ष में ! किस प्रकार जायेंगे मोक्ष में ? इसके लिए कोई साधना नहीं है । साधना नहीं है पर उसका कोई दुःख भी नहीं है । बहिरात्मभाव छोड़कर अन्तरात्म-भाव में भी हम आने को तैयार कहे कलापूर्णसूरि - १ ********* कह १******************************४०३
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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