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पदवी-प्रसंग, पालीताणा, वि.सं. २०५७, मार्ग. सु.५ में
१५-१०-१९९९, शुक्रवार
आ. सु. ६
साधु के लिए सर्वविरति सामायिक, आजीवन समता रह सके वैसी जीवन पद्धति । श्रावक के लिए देशविरति सामायिक, सर्वविरति सामायिक के लिए पूर्व भूमिका । परन्तु इन दोनों का मूल सम्यक्त्व सामायिक है।
सम्यक्त्व सब की नींव है । यदि नींव सुदृढ हो तो भवन सुदृढ होगा । 'तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइअं ।' सम्यक्त्व में इस प्रकार की अतूट श्रद्धा होती है।
. मैं जिस औषधि से स्वस्थ बना उस औषधि से अन्य भी स्वस्थ क्यों न बनें ? मैंने जिस व्याधि से दुःख भोगा है, वह दुःख अन्य कोई न भोगे, ऐसी विचारधारा उत्तमता का चिन्ह है ।
जिस डाकटर के पास अथवा होस्पिटल में जाने से रोग ठीक हुआ है उस डाकटर अथवा होस्पिटल की सिफारिश अनेक व्यक्ति करते होते हैं।
भगवान भी ऐसे हैं । जिस औषधि से उनका भव-रोग मिटा, वह औषधि वे सम्पूर्ण विश्व में वितरण करना चाहते हैं । ऐसी प्रबल इच्छा से ही उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म बांधा ।।
४०२ ****************************** कहे