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दूसरे को दुःख देते हैं तब सचमुच हम स्वयं को ही दुःख देते हैं । इससे विपरीत, जब दूसरे को सुख देते है तब हम स्वयं को ही सुख देते है ।
तीर्थंकर उनके उत्तम उदाहरण हैं ।
• नया नया नहीं सीखेंगे तो चेतना का उन्मेष कैसे होगा ? आत्म-विकास कैसे होगा ?
वस्त्र धोने, गोचरी लानी आदि जरूरी लगते हैं तो आत्मशुद्धि के अनुष्ठान जरूरी नहीं लगते ?
अनुकूलता में ही जीवन पूरा कर देंगे तो यह सब कब करेंगे ? आगम कब पढेगे ?
पाक्षिक सूत्रों में प्रत्येक चतुर्दशी को बोलते है - 'न पढिअं न परिअट्टिअं' तो मिच्छामि दुक्कडं ।
परन्तु यहां पढता ही कौन है ? सब पढने का पूरा हो गया ? क्या कुछ भी बाकी नहीं रहा ?
. दूसरे को जो स्व-तुल्य देखता है वही सच्चा द्रष्टा है। इस प्रकार नहीं देखना बड़ा अपराध है । यह अपराध अन्य किसी का नहीं, हमारा ही है ।
जहां आत्मतुल्य दृष्टि से जीवन यापन होता रहता है, वहां स्वर्ग उतरता है । जहां यह दृष्टि नहीं है, वहां नरक है ।
गुजरात में कुमारपाल राजा के प्रभाव से अहिंसा आज भी कुछ पाली जा रही है, जबकि अन्यत्र तो बकरों को काटना और चीभड़े काटना समान ही दिखता है, और अनेक स्थानों पर ऐसे दृश्य देखे हैं ।
जहां आत्मतुल्यदृष्टि न हो वहां ऐसा ही होता है ।
कर्म के बंध और सत्ताकाल भयंकर नहीं लगते, परन्तु उदय भयंकर है । उदय के समय आपका या मेरा कुछ नहीं चलता । अभी अवसर हाथ में है । सत्ता में पड़े कर्मों में परिवर्तन कर सकते हैं । कर्म-बंधन में सावधानी रख सकते हैं ।
उदय के समय तो रोओ या समाधिपूर्वक सहो । इन दोनों के अलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं है ।
कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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