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* पंचाचार में लगे दोषों की, अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण है । (साधु के लिए पगामसिज्जाय है)।
प्रतिक्रमण के बाद गुरु-वन्दन आता है। दैनिक तीन, पक्खी में तीन, चौमासी में पांच और संवत्सरी में छ: 'अब्भुट्ठिआ' होते हैं ।
हम इतने जड़ एवं वक्र हैं कि प्रतिक्रमण करने के बाद भी पाप चालु ही रखते हैं । इसीलिए नित्य प्रतिक्रमण करने हैं। रात्रि के पापों के लिए राई, दिन के पापों के लिए देवसी प्रतिक्रमण करना है। जबकि महाविदेह क्षेत्र में अथवा मध्यम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण नित्य करने अनिवार्य नहीं है । दोष लगें तो ही करने हैं, क्योंकि वे ऋजु एवं प्राज्ञ है। आदमी जितना जड़ एवं वक्र ज्यादा, उतना कानून-कायदे अधिक । जितना सरल एवं बुद्धिमान ज्यादा, उतने कानून-कायदे कम होंगे ।
बढते हुए कानून-कायदे बढती हुई वक्रता एवं जडता के द्योतक है। बढते हुए कानूनों से प्रसन्न नहीं होना है। कानूनों का जंगल मनुष्य के भीतर विद्यमान जंगलीपन का द्योतक है ।
'जीवो पमायबहुलो' हमारे भीतर प्रमाद ज्यादा है । अतः यदि विधिपूर्वक प्रतिक्रमण न किया हुआ हो, कुछ भूलें रह गई हो, उस प्रमाद को जीतने के लिए 'आयरिय उवज्झाय' के बाद काउस्सग्ग है ।
* मैत्री आदि से भावित बनना है, उसके बजाय हम प्रमाद से, दोषों से भावित बने हुए है ।
प्रमाद की ऐसी बहुलता के कारण ही भगवान बार-बार प्रमाद न करने की टकोर गौतमस्वामी के माध्यम से सब को करते थे ।
मुनिचन्द्रविजय : 'आयरिय उवज्झाय' के काउस्सग्ग में भी प्रमाद हो जाये तो क्या करें ?
उत्तर : काउस्सग्ग प्रमाद विजेता है। काउस्सग्ग से प्रमाद जाता है । 'प्रमाद नष्ट करने के लिए काउस्सग्ग करना है।' ऐसी भगवान की आज्ञा है । बस आज्ञा का पालन करो फिर सब हो गया ।
यों तो आलोचना के स्वाध्याय आदि में भी स्खलना हो तो क्या करें ? उपाय यही है कि सब कुछ अप्रमत्तता से ही करें ।
कहे
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