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के अवसर विचार-विमर्श, वि.सं. २०५६, दशहरा, पालीताणा, सात चोवीशी धर्मशाला
११-१०-१९९९, सोमवार
आ. सु. २
लोक का सार चारित्र है। इसे प्राप्त करानेवाले सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान हैं । इसकी शुद्धता में जितनी वृद्धि होगी, उतना मोक्ष समीप आयेगा । अशुद्धि बढ़ने के साथ संसार बढता है ।
देव-गुरु की कृपा से ज्ञान आदि गुण प्रकट होते हैं, जो हमारे भीतर ही थे । घर में गडा हुआ खजाना जिस प्रकार किसी जानकार के कहने से मिल जाता है, उस प्रकार देव-गुरु के द्वारा भी हमारे भीतर रहा हुआ खजाना हाथ लगता है ।।
हम बाह्य खजाने के लिए व्यर्थ श्रम करते हैं, वह श्रम व्यर्थ जानेवाला है, क्योंकि विषयों में, सत्ता में या सम्पत्ति में कहीं भी सुख या आनन्द नहीं है । वास्तविक आनन्द तो हमारे भीतर ही है। वहीं से वह प्राप्त हो सकेगा । शरीर भी नष्ट होनेवाला है तो पैसों आदि की तो बात ही क्या करनी ? धन आदि से सुख कैसे प्राप्त हो सकेगा ?
भीतर के गुण ही वास्तविक धन है, वही सच्चा खजाना है । वह प्राप्त न हो अतः मोहराजा, हमें इन्द्रियों के पाश में बांधे रखता है।
***** कहे कलापूर्णसूरि - १)
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