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भगवान का ध्यान ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है - ऐसा उपाध्यायजी महाराज का कहना है, तो भगवान मार्ग बन गये न ?
. आज पूज्य बापजी महाराज की चालीसवी स्वर्गतिथि है । वे वि. संवत् २०१५में १०५ वर्ष की आयुमें स्वर्गवासी हुए थे । उनकी परम्परा में १०३ वर्ष के भद्रसूरिजी तथा वर्तमान में विद्यमान अठाणवे वर्षीय भद्रंकरसूरिजी का स्मरण हो जाता है । इनका जन्म वि. संवत् १९११ की सावन शुक्ला पूर्णिमा को हुआ था ।
पू. बापजी महाराज का संसारी नाम चुनीलाल था । विवाह के बाद वैराग्य होने पर धर्मपत्नी चंदन की अनुमति लेकर उन्होंने साधुवेष पहन लिया । परिवारजनों ने तीन दिनों तक कमरे में बन्द कर दिया । खाने-पीने को दिया नहीं । सारे अहमदाबाद में हलचल मच गई ।
आखिर परिवारजनों को उन्हें अनुमति देनी पड़ी । लुहारपोल में मणिविजयजी ने उन्हें वि. संवत् १९३२ में दीक्षा दी । मणिविजयजी के अन्तिम शिष्य सिद्धिविजयजी बने । उसके बाद उनकी धर्मपत्नी चंदन ने दीक्षा ली । उनके साले ने भी दीक्षा ग्रहण की जिनका नाम प्रमोदविजयजी रखा गया ।
प्रथम वर्षावास में ही गुरु की आज्ञा से वृद्ध साधु रत्नसागरजी महाराज की सेवा में वे सुरत गये । उन्होंने निरन्तर आठ वर्षों तक उनकी सेवा की, सुरतवासियों का प्रेम जीता, पाठशाला की स्थापना की, पर उसमें भी अपना नाम न देकर रत्नसागरजी का नाम दिया । आज भी रत्नसागरजी के नाम वाली पाठशाला चलती है ।
उसी वर्ष आश्विन शुक्ला ८ को गुरुदेव मणिविजयजी कालधर्म को प्राप्त हुए । उन्हें गुरु का सामीप्य केवल छ: महिनों का ही मिला, परन्तु अन्तर के आशीर्वाद प्राप्त हो चुके थे ।
अध्ययन करने में इतनी रुचि कि छाणी से नित्य नौ कि.मी. चलकर राजाराम शास्त्री के पास पढने जाते ।
वि. संवत् १९५७ में सुरत में ३० दिनों के महोत्सव पूर्वक उन्हें पंन्यास पदवी से विभूषित किया गया । ८४ वर्ष की आयु में उन्होंने चलकर सिद्धाचल, गिरनार की
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