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की बिल्डिंग बनाई, अतः भिखारीयों और कुत्तों की रोटी तो गईं, परन्तु हमारा 'धर्मलाभ' भी गया ।
दया- दान गये । बाहर 'वोच मैन' खड़ा है । कोई भीतर आये तो सही । आपके ऐश-आराम की हम प्रशंसा नहीं करते । आपकी उदारता, दान आदि की हम प्रशंसा अवश्य करते हैं । 'जे कोई तारे नजरे चढी आवे, कारज तेहना सफल कर्या' भगवान की नजर में चढ जाये, उसके कार्य सिद्ध न हों, इस बात में कोई सार नहीं है ।
भक्त तो कहेगा, 'भगवन् ! आप वीतराग होकर छूट नहीं सकेंगे, मैं आपको छोड़नेवाला ही नहीं हूं ।'
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भगवान का संघ ऐसा कृपण एवं तुच्छ क्यों ? पंन्यासजी महाराज अत्यन्त ही चिन्तित रहते थे । वे परोपकार, मैत्री, नम्रता आदि का संघ में संचार करने के लिए अत्यन्त ही प्रयत्नशील थे । उन्होंने मुझे भी एकबार कहा था, 'आपको ध्यान- विचार पर लिखना आता हैं, 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' पर लिखना नहीं आता ? क्या जीवों का उपकार याद नहीं आता ? आपका जन्म कब हुआ ?' मैंने कहा, 'वि. संवत १९८० में हुआ ।'
'ओह ! तो आपका दोष नहीं है । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लोगों के हृदय में से दया भावना चली गई । काल ही ऐसा खतरनाक है ।' पंन्यासजी महाराज ने कहा ।
✿ धर्म अधिक प्रिय या प्राण ?
तीसरी दृष्टिवाले को धर्म प्रिय लगता है । धर्म के लिए प्राण देने के लिए भी तैयार हो जाये । वह धन का तो आसानी से त्याग करने के लिए तैयार हो जायेगा ।
✿ साढे तीन करोड़ श्लोकों के रचयिता हेमचन्द्रसूरिजी ने कहा है 'भगवन् ! मैं आपके समक्ष पशु से भी गया बीता हूं ।' जबकि हम थोड़ा जानने लगने पर धरती से अद्धर चलने लग जाते हैं ।
✿ मैत्री के सम्बन्ध में विवाद हुआ तब पंन्यासजी महाराज ने ढेर सारे पाठ दिये, परन्तु चर्चा नहीं की, विवाद नहीं किया । मेरी मैत्री की बात से ही यदि अमैत्री होती हो तो वह भी नहीं
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** कहे कलापूर्णसूरि -