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मैं यहां इसलिए सूत्रात्मक बोलने का प्रयत्न करता हूं कि यहां अनेक ऐसे विद्वान वक्ता मुनि, साध्वियां बैठे हैं कि जो अनेक व्यक्तियों तक पहुंचा सकेंगे। 'लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव त्वं शाश्वतं मङ्गलमप्यधीश ।
त्वामेकमहन् शरणं प्रपद्ये, सिद्धर्षिसद्धर्ममयस्त्वमेव ॥ ___ अरिहंत लोकोत्तम है, अप्रतिम है ।
सिद्ध भी कहते हैं - नहीं बन्धु, हमें मुख्य मत बनाना । हमें यहां तक पहुंचाने वाले अरिहंत है । हम में लोकोत्तमता अरिहंत के कारण आई है । 'चत्तारि लोगुत्तमा' में भले सिद्धों का स्थान है, परन्तु उन चारों में मुख्य तो अरिहंत ही है न ? सिद्धचक्र में, नवपद में या अन्य समस्त स्थानों पर अरिहंत ही मुख्य है।
__ अण्डा पहले या मुर्गी पहले ? (ऐसा प्रश्न भगवती में है ।) भगवान कहते हैं - दोनों अनादि से है, कोई पहला नहीं और कोई पश्चात् नहीं ।
उस प्रकार अरिहंत और सिद्ध भी अनादि से हैं ।
इसमें चौथी पंक्ति रहस्यमय है। 'सिद्धर्षिसद्धर्ममयस्त्वमेव' शेष तीन मंगल (सिद्ध + ऋषि + धर्म) आप ही हैं । 'चत्तारि लोगुत्तमा' में अरिहंत के अलावा शेष तीन लोकोत्तम इसमें आ गये न ?
भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ने की कला से माधुर्योपासना होगी । हम संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ना सीखे हैं, परन्तु भगवान के साथ जोड़ना नहीं सीखे ।
त्वं मे माता पिता नेता, देवो धर्मो गुरुः परः । प्राणाः स्वर्गोऽपवर्गश्च, सत्त्वं तत्त्वं गतिर्मतिः ॥
दूसरों को कहने के लिए यह सब याद मत रखना, परन्तु भगवान को माता, पिता, नेता, देव आदि मानकर आप उनके साथ स्वयं सम्बन्ध जोड़ना, यह सब जीवन में उतारना ।
. क्या आपको भगवान पर विश्वास नहीं है ? मुझे विश्वास है।
मुझे तो विश्वास है कि भगवान मेरा सब सम्हाल लेंगे । वे ही मुझे प्रेरित करके मुझसे बुलवायेंगे । अन्यथा मेरे पास पुस्तकें देखने का समय कहां है ? कहीं पांच मिनट मिले कि
*** कहे कलापूर्णसूरि - १
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