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लोग तैयार । ऐसे मिलनेवालों को मैं किस प्रकार अप्रसन्न कर सकता हूं? मैत्री की बातें करनेवाला मैं क्या यहां मैत्री नहीं रखं ? केवल बोलता ही रहूं ?
१. उपयोगो लक्षणम् : ज्ञानमाता के लिए वर्णमाला । २. परस्परोपग्रहो जीवानाम् : पुण्यमाता के लिए नवकार । ३. गुणपर्यायवद् द्रव्यम् : धर्ममाता के लिए अष्टप्रवचनमाता । ४. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसद् : ध्यानमाता के लिए त्रिपदी । तत्त्वार्थ के ये चारों सूत्र चारों माताओं को सुदृढ बनानेवाले
हैं ।
पं. भद्रंकरविजयजी का अन्तिम पत्र पिण्डवाडा से आया था । उसमें लिखा था कि असह्य वेदना से अन्य सब विस्मृत हो जाता है, परन्तु 'उपयोगो लक्षणम्' का चिन्तन चालु है । यह पत्र सम्हाल कर रखा हुआ है । वह पत्र आज भी हमारे पास है ।
पं. भद्रंकरविजयजी कहते - 'आप मेरे उपकारी हैं, अन्यथा मैं यह सब किसे कहता ?'
भगवान कहते हैं - सभी जीव मेरे उपकारी हैं, अन्यथा मैं किन पर करुणा भावना लाता? किसके साथ एकता करता ?
जब भीड़ बहुत हो जाती है, मैं आकुल - व्याकुल हो जाता हूं तब मुझे पं. भद्रंकरविजयजी याद आते हैं ।
वज्रसेनविजयजी किसी दर्शनार्थी को रवाना करें (साहेबजी को कष्ट न हो इस आशय से) और उन्हें पता लगे तो फटकारे, रवाना क्यों किया ? ऐसी अमैत्री ? भगवान ने उन्हें यहां भेजे हैं और तू उनको यहां से बाहर निकाल रहा है ?
___ यह याद आते ही मैं तुरन्त तैयार हो जाता हूं । शारीरिक स्थिति को गौण करके भी हजार - हजार श्रद्धालुओं पर मैंने वासक्षेप डाला है।
(कहे कलापूर्णसूरि - १ **
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