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वढवाण (गुजरात) उपाश्रय में पूज्यश्री, वि.सं. २०४७
२-१०-१९९९, शनिवार
आ. व. ८ (मध्यान्ह)
ॐ अनन्तकाल के परिभ्रमण में ऐसे वीतराग कभी नहीं मिले । मिले तो उनमें श्रद्धा नहीं की, भक्ति नहीं की, भक्ति की पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचे, यह बात निश्चित है ।
भगवान का तो निर्वाण हो गया, तो मिलन हुआ कैसे कहा जायेगा? उनकी वाणी के द्वारा, उनकी मूर्ति के द्वारा, इस समय भगवान हमें मिले हैं। जैसे पत्र के द्वारा कोई प्रिय-जन मिलते हैं ।
आगम भगवान का पत्र है । उन्होंने यह पत्र गणधरों से लिखवाया है ।
पुष्करावर्त मेघ की तरह भगवान ने वृष्टि की है। भगवान ने पुष्पों की वृष्टि की है । गणधरों ने उन पुष्पों की माला गूंथी है । वह माला ही आगम है ।
पत्र चाहे डाकिये ने दिया, परन्तु है किसका ? प्रेम डाकिये पर नहीं, परन्तु पत्र लिखनेवाले पर होता है । हम तो डाकिये हैं ।
शशिकान्तभाई : हमको तो डाकिये पर प्रेम है ।
उत्तर : हम ऐसे डाकिये हैं कि पत्र लाते तो हैं, पर उसे पहुंचा नहीं सकते । (कहे कलापूर्णसूरि - १ ******
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