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व्याख्यान आपको इसीलिए प्रिय लगते है न ? कुछ भी पक्का नहीं करना । ब्याज के बिना ही धन ले जाना है । चुकाने की चिन्ता ही नहीं ।
मनुष्य की शोभा मधुर एवं सत्यवाणी है । वाणी की शोभा गुरु एवं देव की भक्ति है ।। भक्ति की शोभा 'स्व' एवं 'पर' का बोध है । बोध की शोभा समता एवं शान्ति है ।
१. वाणी : मनुष्य की प्रथम शोभा वाणी से है । हम वाणी को कैसा व्यर्थ बिगाड़ रहे है ? यदि वाणी का दुरुपयोग करेंगे तो ऐसी गति में (एकेन्द्रिय में) जाना पड़ेगा, जहां वाणी नहीं हो । इस पद में वाणी से वर्णमातृका आई ।
२. भक्ति : भक्ति-रहित वाणी भी व्यर्थ है। भक्ति अर्थात् 'नमो', नमस्कार भाव । इसके विशेष अर्थ जानने के लिए पू.पं. 'भद्रंकरविजयजी के पुस्तकों का पठन करें । 'नमो के अर्थों में सम्पूर्ण जीवन बीत जाये तो भी वे पूरे नहीं होंगे । 'नमो' में इच्छा, सामर्थ्य एवं शास्त्र - तीनों योग निहित हैं । 'नमो' में शरणागति, दुष्कृतगर्दा, सुकृत-अनुमोदन - तीनों पं. भद्रंकरविजयजी ने घटित किये हैं । 'नमो' में सम्यग्दर्शन मिलने पर ही भाव नमस्कार मिलता है ।
गणधर तो अत्यन्त उच्च कक्षा के हैं । उनका तो नमस्कार हो गया, फिर भी 'नमो अरिहंताणं' क्यों बोलते है ? स्वयं जहां हैं उससे भी उंची भूमिका प्राप्त करने के लिए बोलते हैं ।
'नमो' के द्वारा नवकारमाता सूचित होती है । ज्ञान बढने के साथ भक्ति बढनी चाहिये ।
३. स्व-परात्म बोध : यह भक्ति की शोभा है । नवकार के साधक को स्व-पर का भेद-ज्ञान अवश्य होता है, यही सम्यग्दर्शन है, इसका बीज भक्ति है, नमो है ।
लड्डु के लिए तीन वस्तु की आवश्यकता होती है - गुड़, घी और आटा । तीन में से एक वस्तु बाकी रख कर लड्डु बनाओ तो सही । घी नहीं डालोगे तो कूलर बन जायेगा, आटा नहीं डालोंगे तो राबडी बन जायेगी, परन्तु लड्ड नहीं बनेंगे ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इन तीनों के मिलने से ही मोक्षरूपी (कहे कलापूर्णसूरि - १ ****************************** ३२१)