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________________ यह सम्बन्ध भी जीवत्व के नाते नहीं, स्वार्थ के नाते है । इसी लिए इसका निषेध किया गया है । . प्रश्न सब अपने मन में रखें । प्रश्न सन्देह के द्योतक हैं । अभी तक आप प्रभु को समर्पित नहीं हुए । समर्पण के बाद प्रश्न कैसे ? अहंकार-रहित मन में से प्रश्न नष्ट हो जाते हैं । नौ दिनों तक मुझे बराबर सुनें । आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर प्रायः आपको मिल जाएंगे यदि नहीं मिले तो दशवे दिन मुझे कहना । • भगवान हमें प्रत्यक्ष नहीं है, परन्तु हम भगवान के लिये प्रत्यक्ष है। उनके केवलज्ञान में हम प्रतिबिम्बित हैं, क्योंकि भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं । यह होल हमें प्रत्यक्ष है, उस प्रकार प्रभु को सम्पूर्ण विश्व प्रत्यक्ष है । भगवान सर्वज्ञ है और सर्वव्यापी है । देहरूप में सर्व-व्यापी नहीं है परन्तु केवलज्ञान के रूप में सर्व-व्यापी हैं । इसीलिए प्रभु 'विभु' हैं । मानतुंगसूरिजी ने इसी अर्थ में 'त्वामव्ययं विभु...' इस श्लोक में प्रभु को विभु कहे है । - बीजाने शुं आप ? व्यवहारमा आपणने कोई सोनाने बदले लोढानो गठ्ठो आपे तो केवु लागे ? पण आपणे रागद्वेष रुपी कचरो आपता कंई विचार करीए छोए ? आपणी पासे आत्मसंपत्तिरूप मैत्री आदि भावनानो शुं दुष्काळ पड्यो छे ? . दुर्भावनाओथी व्यथित मनने-जीवनने सुधारवा, स्वरूप प्राप्ति माटे संतवाणीनुं पान कर. ते वचनसागरमां डूबी जा. तुं पण अमृतरूपे प्रगट थईश. कहे कलापूर्णसूरि -२ ३१४ ****************************** कहे
SR No.032617
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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