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• स्थंडिल एवं मात्रु के २४ स्थान देखने हैं। हम इस समय 'आघाडे आसन्ने' (मांडला) कर रहे हैं वह इसका प्रतीक है।
'आघाडे आसन्ने' मांडला के द्वारा ज्ञानियों की यह भी दृष्टि है कि कोई भी साधु-साध्वी अपनी प्राकृतिक हाजत को रोके नहीं । उसे रोकने में अत्यन्त हानि है ।
. जैन धर्म को पराजित करने के लिए दीक्षित होने वाले गोविन्द मुनि का सच्चा हृदय-परिवर्तन हुआ और उन्होंने पुनः दीक्षा अंगीकार की । ऐसा है यह शासन, जो अपने विरोधियों को भी अपने भीतर समाविष्ट कर देता है।
. महा पुन्योदय से कोई भक्ति आदि के कार्यक्रम आयोजित होते हैं । पहले अर्हदभिषेक आदि अनुष्ठान आयोजित होते, जिनमें समस्त साधु-साध्वीजी एकत्रित होते । नहीं जाने वाले साधु-साध्वी को प्रायश्चित्त आता, ऐसा छेद-सूत्रों में उल्लेख है।
. प्रश्न : केवलज्ञानी को क्या बाकी रहा जिससे तीर्थंकर की देशना सुनने के लिए बैठे ? क्या जरूरत है ? समवसरण में केवली-पर्षदा का आयोजन क्यों ?
उत्तर : यह व्यवहार है, औचित्य है । गुरु को देख कर शिष्य भी सीखे । दूसरे लोगों में भी भगवान के प्रति बहुमान हो । तीर्थंकरों की महिमा में वृद्धि हो ।
देखो तो सही । गुरु गौतमस्वामी छद्मस्थ हैं, ५०० तापस केवलज्ञानी है फिर भी केवलज्ञानी पीछे चलते हैं। केवलज्ञानी शिष्य, छद्मस्थ गुरु चंडरुद्राचार्य को उठाकर घूमते हैं, डण्ड़े की मार भी सहन करते हैं । केवली कूर्मा पुत्र छः माह तक मातापिता की सेवा करते है । सचमुच व्यवहार बलवान है ।
. मृगावती के स्थान पर हम हों तो गुरु को कह देते, 'आप क्यों अकेली अकेली चली गई ? मुझे क्यों नहीं कहा ? भूल आपकी है, मेरी थोड़ी भी नहीं । मैं कोई भटकने के लिए नहीं गई थी जो मुझे उपालम्भ दे रही हैं ?
इसीलिए तो हमें केवलज्ञान नहीं हो रहा न ? उन्होंने समता भाव से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । हम केवलज्ञान को दूर-दूर ढकेल रहे हैं ।
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