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श्रद्धायुक्त ज्ञान । ज्ञान प्रकाशरूप है, जिससे जीवन आलोकित होता है ।
प्रथम दृष्टि का ज्ञान-प्रकाश, घास की आग के समान कहा गया है, जो जलकर तुरन्त ही शान्त हो जाता है ।
प्रथम दृष्टि में कभी कभी आत्मिक आनन्द की झलक आती है, परन्तु वह अधिक समय तक टिकती नहीं है । झलक प्रतीत होती है और विद्युत् वेग से चली जाती है । वह भले चली जाती है, परन्तु भीतर पुनः उसे प्राप्त करने की लालसा छोड़ जाती है । उसके बाद उस आनन्द को ढूंढने के लिए साधक खोज करता है । वह विभिन्न मतों का तटस्थ बन कर अवलोकन करता है।
उसके बाद चौथी दृष्टि में गुरु के अनुग्रह का वर्णन करते हुए कहा है - 'गुरुभक्तिप्रभावेन, तीर्थकृद्दर्शनं मतम् ।'
यहां गुरु के द्वारा प्रभु-दर्शन प्राप्त होता है, भले ही इस क्षेत्र - काल में भगवान न हो ।
जगत् के जीव कंचन-कामिनी के दर्शन में इतने सराबोर हैं कि उन्हें भगवान के दर्शन याद आते ही नहीं । __ ऐसे मनुष्य कहते हैं - 'अस्मिन्नसार-संसारे, सारं सारंगलोचना ।
. समापत्ति अर्थात् ध्यान के द्वारा प्रभु के गुणों की स्पर्शना ।
* भाव अरिहंत न मिले तब तक नाम एवं स्थापना में भक्त को प्रभु दिखते हैं ।
प्रेमी के पत्र में, प्रेमी के चित्र में जिस प्रकार साक्षात् मिलनतुल्य आनन्द प्राप्त होता है, उस प्रकार प्रभु के नाम तथा प्रभु की मूर्ति में भक्त को मिलनतुल्य आनन्द प्राप्त होता है।
प्रभु का जाप उस प्रकार करो कि मंत्र में आपको प्रभु दिखे । प्रभु की मूर्ति के आप ऐसे दर्शन करें कि आपको साक्षात् प्रभु दृष्टिगोचर हों । अद्य मे सकलं जन्म अद्य मे सफला क्रिया । 'अहो प्रभु ! 'आज मेरा जन्म सफल है । आज मेरी क्रिया सफल है ।' ये उद्गार क्या बताते हैं ? जो मूर्ति में साक्षात् भगवान निहारता है, साक्षात् भगवान के दर्शन करता है, वही यह बात कह सकता है।
'जेह ध्यान अरिहंत को, सो ही आतम ध्यान ! भेद कछु
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